Tuesday, July 31, 2007

HONEST BORE VRS SINGAPORE SHOPPERS

ईमान के घिस्से बनाम सिंगापुर के किस्से

आलोक पुराणिक

कलाम साहब रिटायर हो गये। कह रहे हैं कि पढ़ायेंगे कई संस्थानों में। कलाम साहब पुन टीचरो भव की स्थिति में आ लिये हैं। अच्छा है,, रना पुराने राष्ट्रपति सिर्फ संस्मरण सुनाने भर के हो जाते हैं। बंदा जब संस्मरणात्मक मोड में आ जाये, तो उसका हाल कुछ-कुछ बिगड़े कंप्यूटर का सा हो लेता है, जो बार-बार रिस्टार्ट होता है, और कुछेक पलों के बाद घूम-फिरकर एक खास बिंदु पर रुक जाता है।

संस्मरणात्मक मोड में आम तौर पर राइटर हीं आते। कायदे के वे राइटर तो नहीं आते, जिनके दिल का उचक्कापन हमेशा बरकरार रहता है। दिल के उचक्के हमेशा भविष्योन्मुखी होते हैं, भविष्य की संभावनाओं पर विचार करते हैं। सलमान रश्दी शायद चार बार प्रेम-ऊम का मामला जमा चुके हैं, पर अभी संस्मरणात्मक मोड में नहीं आये हैं, भविष्य पर निगाह है। बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि भला आदमी सिर्फ संस्मरणों के सहारे काटता है, उचक्के तो भविष्य के सहारे जीते हैं।

भला आदमी संस्मरणात्मक हो जाये, तो बहूत सताता है। जी वही किस्से-हमारे लिखी रिपोर्ट पर मजाल थी किसी की कि कोई उंगली रख दे या अंजू की शादी हमने ऐसी की, , सारे रिश्तेदार देखते रह गये-टाइप। मेरे एक रिटायर्ड रिश्तेदार हैं,, जिनकी अंजू की शादी सुनकर मैं कई बार बेहोश होते होते बचा हूं। ऐसों की अंजू आतंकवादी सी लगती है।

पर क्या करें , भले -ईमानदार अफसर के किस्से बहुत लिमिटेड होते हैं। मैंने उसको रिफ्यूज कर दिया, मैंने उससे मना कर दिया।

बेईमान अफसर के पास रोचक किस्से होते हैं। लास वेगास, नेपाल के जुएघरों से लेकर सिडनी की लेक में नहाने तक के, या सिंगापुर, ददुबई में शापिंग तक के।

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ईमानदार बंदे के पास सिर्फ बोरिंग ईमानदारी बचती है और बेईमान अफसर के पास रोचक संस्मरण।

इसलिए ईमानदार अफसरों की बीबियां बहुत दुखी रहती हैं, ईमान का शिकार करके जब अफसर घर आता है, तो बीबी को उसकी ट्राफी दिखाता है। यह अलग बात है कि जिसे वह ईमान की ट्राफी समझ रहा होता है, वह दरअसल बोरिंग सी अनझेलेबल स्टोरी होती है। और रिटायरमेंट के बाद तो यह उपन्यास हो जाती है।

और हां, इंगलिश के मास्साब भी रिटायर होकर खौफनाक हो जाते हैं। मुहल्ले भर के बच्चों की ग्रामर सुधारने के चक्कर में लग जाते हैं।

हमें अपनी कोई चिंता नहीं है, दिल का उचक्कापन रिटायरमेंट के बाद भी बरकरार रहेगा। उसमें एक क्या कई जन्म इंटरेस्टिंग बनाये जा सकते हैं।

आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Monday, July 30, 2007

DATING VERSUS DATES OF BILLS

डेटिंग बनाम बिलों की डेट
आलोक पुराणिक
इंटरनेट न हो तो आफत है।
वैसे हो, तो ज्यादा आफत है। कल ई-मेल में एक डेटिंग वैबसाइट ज्वाइन करने का प्रपोजल आया, प्रपोजल के बाद वैबसाइट के मार्केटिंग मैनेजर ही आ लिए, लाइन पर। विकट संवाद हुआ, पेश है-
मार्केटिंग मैनेजर उर्फ मामै-देखिये, आप डेटिंग साइट ज्वाइन कर लीजिये। डेटिंग बहुत मजे की चीज है।
अपन-देखिये इंडिया में शादी के दस साल बाद बंदा सिर्फ ये डेट याद रखता है-मोबाइल के फोन के बिल के पेमेंट की लास्ट डेट, लैंडलाइन के बिल के पेमेंट की लास्ट डेट, बच्चों की फीस की डेट, टैक्स रिटर्न फाइल करने की डेट, हाऊस टैक्स जमा कराने की डेट, बिजली के बिल की डेट। अगर इसे डेटिंग कहते हैं, तो हम धुआंधार कर रहे हैं, उसमें वैबसाइट क्या कर लेगी।
मामै-देखिये, डेटिंग बहुत धांसू एक्सपीरियंस है। इट्स सो फनी।
अपन- ड्यू डेट पर बिलों पे बिल दिये जाओ, इसमें फन कहां से आया।
मामै-देखिये, आप समझ नहीं रहे हैं। मतलब आप नयी पासिबिलिटीज को एक्सप्लोर कर सकते हैं।
अपन-जी वो तो यूं भी करते रहते हैं। पिछली बार उधार गुप्ताजी से लिया था, अबकी बार शर्माजी से लेंगे। बाकी सारे बैंकों से लोन लिये जा चुके हैं। बस एक बच गया है, सो उससे भी ले लेंगे। पर इसमें वैबसाइट क्या कर लेगी, उधार एक्सप्लोर करने का होमवर्क तो हम ही कर लेते हैं। फिर अब तो हम आदी हो गये हैं, इन पुराने टेंशनों के। पुराने टेंशन पति की तरह के हो जाते हैं, जो न हों, तो परेशानी सी हो जाती है। हालांकि हों, तो भी परेशानी रहती है।
मामै-देखिये आप समझ नहीं रहे हैं, इसमें एडवेंचर है। जरा सोचिये, कित्ता एडवेंचर, अनिश्चितता, आप एक्सप्लोर कर रहे हैं, पता नहीं कैसे सिलसिला जम जाये, किससे जम जाये।
अपन-जी एडवेंचर तो वैसे ही बहुत है। परसों बेटी की फीस देनी है, करीब आठ हजार रुपये, अभी तक जुगाड़मेंट नहीं ना हुआ है। कहां से होगा,अनिश्चितता, एक्सप्लोर कर रहे हैं।
मामै-अगर टेंशन है, तो आप फिर डेटिंग में क्यों नहीं जाते, कुछ नया एक्स्पलोर करने। देखिये डेटिंग बहुत थ्रिलिंग एक्सपीरियंस है। वेट करने में बहुत थ्रिल है।
अपन-वैसे ही कम थ्रिल नहीं है लाइफ में। हम तो हर घंटे खुद ही घर के दरवाजे खोलकर देख लेते हैं कि किसी अख़बार का कोई भुगतान तो नहीं लेकर आया कूरियर वाला। नहीं आता, थ्रिलिंग वेट चलता रहता है। पेमेंट नहीं आता। पत्नी कई बार डांट चुकी है, जितने विरह से तुम भुगतान की प्रतीक्षा करते हो, उतने विरह से अगर ऊपर वाले को याद करो, तो वह भी आ जाये। मैं इस पर कहता हूं कि ऊपर वाला आ भी जाये, तो मैं क्या करुंगा, उसके भोग-प्रसाद में और खर्च हो जायेगा। ऊपर वाला बिल-फीस तो नहीं चुकायेगा। बीबी गुस्सा हो जाती है, वह कब तक रुठी रहेगी, यह थ्रिलयुक्त सवाल चलता रहा है। पेमेंट के इंतजार में थ्रिल है।
मामै का जवाब नहीं आया है। उसकी हार्ड डिस्क क्रैश हो गयी है शायद।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799

Sunday, July 29, 2007

KNOWLEDGE AND BUSH INJURIOUS TO WORLD

संडे सूक्ति-ज्ञान से दूर रहें, और ज्ञानियों से भी
आलोक पुराणिक
जो लोग कहते हैं कि अज्ञान से संकट पैदा होते हैं, उन्हे ज्ञान के संकटों का अंदाज नहीं है।
साहब, अज्ञानी अपने लिए संकट पैदा करता है।
ज्ञानी सबके लिए संकट पैदा करता है और वैराइटी-वैराइटी के संकट पैदा करता है।
जब मैं पत्रकार था, तो मेरे साथ एक ज्ञानी होते थे डीजल के। विकट ज्ञान डीजल का , डीजल पर बढिया लिखते थे। पर जिंदगी डीजल से परे भी होती है। पर इसमें उनकी क्या गलती। यह जिंदगी की गलती है कि वह डीजल से परे क्यूं होती है।
एक बार उनके सहकर्मी को अपनी कन्या के रिश्ते के लिए किसी बालक से बातचीत करने के लिए जाना था, सो मौके की नजाकत के हिसाब से वह एक ज्ञानी पुरुष यानी डीजल ज्ञानी को अपने साथ ले गये। संभावित बालक सामने आया। बातचीत की शुरुआत में ही डीजल ज्ञानी ने लडके से पूछा-तुम्हारी कार डीजल से चलती है या पेट्रोल से।
सकपकायमान उत्तर आया-जी पेट्रोल से।
क्यों डीजल से क्यों नहीं चलाते। इत्ता अच्छा एवरेज देती है। तुम लगता है कि किफायतशारी से नहीं चलते-डीजल ज्ञानी से डांट दिया।
शुरु से बात डीजल ने ऐसी उखाडी कि जम ही नहीं पायी।
ज्ञान के बड़े संकट हैं साहब।
डीजल ज्ञान ने मरवा दिया। उसी दफतर में एक सहकर्मी की दुर्घटना हुई, मोटरसाइकिल से।
डीजल ज्ञानी ने पहला सवाल पूछा-मोटरसाइकिल डीजल से चलती थी या पेट्रोल से।
पब्लिक उनसे डरने लगी। मुझे लगता है कि यमराज भी डरने लगे होंगे उनसे, मुझे पक्का यकीन है कि जब यमराज आयेंगे उनके पास तो डीजल ज्ञानी एक ही सवाल पूछेंगे-महाराज बताओ अपने भैंसे में डालते क्या हो-पेट्रोल या डीजल।
मैं तो उनसे बहुत डर गया था। मैंने सबसे कह रखा है कि मेरी मौत की खबर उन्हे ना दी जाये। श्मशान में पहुंचकर आमादा हो जायेंगे कि स्वर्गीय को डीजल से ही फूंका जाये। मार-बवाल हो लेगा।
एक और ज्ञानी थे-पिल्लों के बहुत धांसू जानकार। पिल्ले को दो किलोमीटर दूर से देखकर बता दें कि इसकी मां ने इसके पिता के चयन में सिर्फ स्वदेशी भावना से काम किया है, या इसकी मां का इस मामले में ग्लोबल विजन है।
पिल्ला ज्ञानी पूरे ब्रह्मांड को दो भागों में बांटते थे-एक पिल्ला ब्रह्मांड और दूसरा गैर-पिल्ला ब्रह्मांड।
कभी गौर से देखें, तो पता लगता है कि बेवकूफियों की परम-चरम किसी एक्सपर्टत्व में ही प्रकट होता है।
खैर पिल्ला ज्ञानी के दफ्तर में सहकर्मी किसी एक्ट्रेस की तारीफ करते -वाऊ क्या ग्लोइंग स्किन दिखी है, उस फिल्म में।
पिल्ला-ज्ञानी फौरन बताते-क्या खाक, पामेरियन जब चार दिन का होता है, तब उसकी स्किन देखो। सब भूल जाओगे।
बिचारी एक्ट्रेस पामेरियन से पिट जाती।
पर एक बार पिल्ला ज्ञानी पिट लिये।
किसी शिशु की तारीफ में उन्होने कह दिया -अरे यह तो डाबरमैन के बच्चे से भी ज्यादा प्यारा लग रहा है।
शिशु का मां बहुत पिल्ला ज्ञानी तो नहीं थी, पर वह इतनी समझ उसे थी कि डाबरमैन कुत्ते की एक नस्ल है। पर नासमझी उसने यह दिखाया कि डाबरमैन से कंपेरीजन को तारीफ नहीं माना और पिल्ला -ज्ञानी को पीटने को आतुर हो उठी। लोगों ने पिल्ला ज्ञानी को बचाया।
साहब ज्ञान नहीं बचाता, मरवा देता है।
अब बुश को ही देखिये, उन्हे ज्ञान है कि दुनिया में इराक नाम का देश है और उस देश में तेल है। अगर इस ज्योग्राफी के मामले में वह अज्ञानी होते, तो इराक भी बच जाता और तेल भी। बुश का ज्ञान सबके लिए टेंशन है। वैसे बुश अपने आप में ही टेंशन हैं। ज्ञान के साथ मिलकर तो मामला डबल टेंशनात्मक हो लेता है।
एक और ज्ञानी टकराये, आगरा में हींग की मंडी में जूतों का थोक कारोबार था।
दिल्ली से मुंबई की यात्रा करीब सोलह घंटे का साथ। किसी यात्री ने कविता पर बात चला दी कि अब के कवियों की कविताएं ज्यादा नहीं चलतीं।
जूता-ज्ञानी कूद पडे-जी यही हाल नये जूतों के सोलों का है। कहां चलते हैं। छह महीने में घिस जाते हैं। ये कविताएं और सोल दोनों के बनाने वाले बदमाश हो गये हैं।
किसी ने कहा-पुराने कवियों की कविताएं बहुत लंबी चलती हैं। अब तक याद हैं। जूता ज्ञानी फौरन कूदे-जी हमारे जमाने के जूते के सोल भी बहुत चलते थे। तब के से कवि और तब के से सोल अब कहां जी। हाय बिछड़े सभी बारी-बारी।
ऐसा जूतेबाज समां बंधा उस रात कि मुझे लगा कि पृथ्वी की सारी कविताएं जूतों का सोल हैं। जूतों के सोल ही कविताएं हैं।
अब ये ज्ञान अगर अपने कवि मित्रों को दे दूं, तो वो मुझे मार डालेंगे।
सो, समझे ना ,ज्ञान मरवा डालता है साहब।
आलोक पुराणिक -09810018799

Saturday, July 28, 2007

REGISTRY BY BABAR

बाबर की रजिस्ट्री
आलोक पुराणिक
कई साल इस खाकसार ने इस विषय पर चिंतन में गुजारे हैं कि आखिर क्यों, लगातार, बार-बार इस देश पर विदेशियों का कब्जा हो गया। सिकंदर, बाबर, से लेकर अंगरेज, फ्रांसीसी सब आ गये और जम गये। पता है, इन सबका कब्जा क्यूं हो गया, इसलिए कि उस जमाने में जमीन रजिस्ट्री के दफ्तर नहीं थे, जैसे आज होते हैं।
एक दिव्य सीन उभरता है। फतेहपुरसीकरी के पास खानवा के मैदान में बाबर लड़ाई जीतकर मिसेज बाबर को बता रहे हैं-अपना कब्जा हो गया है।
जैसा कि हर समझदार मिसेज पूछती है,मिसेज बाबर भी कहतीं- देखो पक्की रजिस्ट्री करवा लो, वरना हुमायूं वगैरह बाद में भटकेंगे।
बाबर सुबह ही लंच बांधकर निकल लिये हैं तहसील के दफ्तर में, रजिस्ट्री कराने।
स्टांपपेपर ले लो, दस्तावेज लेखक से मिल लो-पहले कागजात तैयार कराने पड़ेंगे। एक रजिस्ट्रीधारक बाबर को सलाह दे रहा है।
अजी मैं क्यों मिलूं, दस्तावेज लेखक से,मैं तो खुद ही लेखक हूं, इतनी कविताएं मैंने लिख मारी हैं। मैं तो खुद बाबरनामा लिख रहा हूं, अपनी रजिस्ट्री के दस्तावेज भी खुद लिख लूंगा-बाबर कहते।
जी रजिस्ट्री के दस्तावेज के मामले टेकनीकल आइटम होते हैं, सो पढ़े-लिखों के बस के नहीं हैं-एक दस्तावेज लेखक समझाता।
सही बात है टेकनीकल मामले पढ़े-लिखे लोगों के बस के नहीं होते।

मैं भी एक बार रजिस्ट्री कराने गया था स्टांप खर्च, दस्तावेज लेखक का खर्च, और सारे अगड़म-बगड़म खर्च मिलाकर खर्च आ रहा था 92,000, पर मुझसे मांगे गये 97,000। मैंने अपने पढ़े-लिखेपन का सबूत देते हुए सब टोटल करके बताया कि पांच हजार रुपये एक्सट्रा काहे बात के।
आसपास सब हंस पड़े-एक ने कहा, पढ़े-लिखे से हैं, इसलिए समझते नहीं हैं।
ऊपर की खर्च और ऊपर की कमाई पर सवाल उठाने का मतलब है जी अगला पढ़ा लिखा सा है, और टोटल वैसे ही करता है, जैसे गणित की किताबों में समझाया जाता है। बाबर भी अपने गणित –ज्ञान का परिचय देते, सब हंसते।
खैर, जैसे-तैसे बाबरजी को समझाया जाता, बाबर मान जाते। और स्टांप पेपर तैयार वगैरह हो जाते।
फिर लाइन लगती। बाबर सन्नद्ध, सावधान मुद्रा में खड़े रहते।
बाबर का नाम पुकारा जाता, और कहा जाता कि कागजों पर अंगूठा ठोंको।
बाबर बुरा मान जाते कहते मैं इतना पढ़ा-लिखा हूं और मुझे अंगूठाटेक बना रहे हैं।
बताया जाता है कोई भी पढ़ाई-लिखाई अंगूठे के महत्व को कम नहीं कर सकती। अंगूठे के बगैर पक्का काम नहीं होता। बाबर महान विद्वान अंगूठा टेक हो जाते।
तीन चार स्तर के बाबू लोगों के सोहबत में गुजरकर दस्तावेज जब तक फाइनल स्टेज में पहुंचते, शाम नहीं रात हो जाती। फिर बताया जाता कि सब -रजिस्ट्रार साहब उठ गये हैं, कल-परसों या फिर कभी आयेंगे।
बाबर का दिल बैठ जाता, फिर खुद भी बैठ जाते।

रजिस्ट्रीविहीन घर लौटते, तो मिसेज बाबर ताना मारतीं-क्योंजी पूरी लड़ाई तो तुमने आधे दिन में जीत ली थी, अब पूरा दिन लग गया, फिर भी रजिस्ट्री नहीं हुई। बड़े तीसमार खां बनते हो।
बाबर मारे शर्म के डिक्लेयर करते, बेगम चलो इंडिया के रजिस्ट्री दफ्तर बहुत बदमाश हैं, हम राणा सांगा से जीत सकते हैं, पर रजिस्ट्री वालों से नहीं।
बाबर उसी रात इंडिया छोड़ देते।
हाय रजिस्ट्री दफ्तर तुम पहले क्यूं ना हुए।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

Friday, July 27, 2007

कनफ्यूजनात्मक कलाईयां

कनफ्यूजनात्मक कलाईयां
आलोक पुराणिक
आज यह खाकसार गचागच शास्त्रीय मूड में है। कई घंटों का शास्त्रीय संगीत सुनकर आया है। शास्त्रीय मूड में कई शास्त्रीय सवाल उठ रहे हैं-कई घंटों तक तरह-तरह से कई गायिकाएं बताती रहीं, कलईयां मरोड़ गयो रे, बरजोरी कर न सैंया, मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे, आदि-आदि।
माडर्न मन पूछ रहा है कि कलईयां मोड़ी जाने की वारदात को अगर गाकर , तरह-तरह के अंदाज में बताया जा रहा है, तो प्रश्न उठता है कि क्या नायिका या गायिका सच्ची में इस वारदात पर गुस्सा है या आनंदित है।
फिर प्रश्न यह है कि कलईयां मरोड़ने वाला अगर सैंया ही है, तो यूं इस कदर सैंया की हरकत को पब्लिक के सामने क्यों लाया जा रहा है।
और अगर कलाई मरोड़ने वाला अगर सैंया नहीं है, तो फिर यह तो पुलिस रिपोर्ट का विषय है। इसे गाकर क्यों बताया जा रहा है।
विकट कनफ्यूजनात्मक कलाईयां हैं।
जरा सोचिये, क्या सीन उभरता है, किसी सुंदरी की कलाई कोई गैर-सैंया मरोड़ गया है, और उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप सुंदरी पुलिस थाने में जाकर गाकर बता रही है-कलईयां मरोड़ गयो रे। सुंदरी तान खींच रही है, फिर तान खींच रही है।

थानेदार कह रहा है, देवी जल्दी समेटो, एक घंटे से तुम मुद्दे पर नहीं आ रही हो। तुम बताओ कौन मरोड़ गया, उसकी वल्दियत बताओ, उसकी शिनाख्त बताओ। इलाका- ए -वारदात बताओ।
सुंदरी बस गाये जा रही है- कलईयां मरोड़ गयो रे।
हो न हो, प्राचीन काल में थानेदार बहूत रसिक टाइप के होते होंगे। फुल तसल्ली से कलाई मोड़ने की वारदात सुनते होंगे।
पर विचारणीय यह है कि कलाई मोड़ने के मसले गाने के नहीं, एक्शन के मसले हैं।
मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे-सुनकर नंदलाल नामक मेरा छात्र घबरा गया, बोला गुरुजी आप गवाह हो-सुबह ट्यूशन पढ़ने जाता हूं, दोपहर में कालेज जाता हूं, शाम को कंप्यूटर कोर्स करता हूं। रात में जर्मन पढ़ने जाता हूं,मल्टीनेशनल में नौकरी करनी है। गुरुजी पनघट पर जाने का टाइम नहीं है। आप गवाह हो।
जी मैं गवाह हूं, इधर माडर्न नंदलालों को तमाम बवाल इस कदर लपेटे हैं कि पनघट तो छोड़ो, सामने ही कोई आ जाये, तो भी ना छेड़ें। नंदलाल बहूत बिजी हैं, सुंदरी क्यों बदनाम कर रही है उन्हे।
और - बरजोरी न कर सैंया-को जिस अंदाज में गायिका गा रही थीं, उससे नया कनफ्यूजन पैदा हो गया। अगर बरजोरी स्वीकार्य है, तो मामला खत्म। अगर नहीं, तो उठ और कांटेक्ट कर महिला आयोग से कि सैंया बरजोरी करता है। जिस देश की राष्ट्रपति महिला हो, सरकार चलाने वाली एक महिला हो, वहां सैंया बरजोरी करते रहें, सैंयाओं की तो ऐसी-तैसी।

एक शास्त्रीय संगीत के जानकार कह रहे हैं-तुम हमेशा उलटा ही सोचते हो। पर कसम शास्त्रीय चिंतन की, बताइए क्या एक भी बात उल्टी की है मैंने।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

Thursday, July 26, 2007

अब हिमेश रेशमिया एज हीरोईन भी

अब हिमेश रेशमिया एज हीरोईन भी

आलोक पुराणिक

यह लेख उस छात्र की कापी से लिया गया है, जिसने एक निबंध कंपटीशन में टाप किया है। लेख का विषय़ था-हिमेश रेशमिया।

हिमेश रेशमिया का हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बहूत महत्व है। वो कहावत में कहा जाता है कि नाक की बात है यानी नाक सबसे महत्वपूर्ण अंग है बाडी का। हिमेश ने इस कहावत को साकार करके दिखाया है। नाक सिर्फ जुकाम के काम नहीं आती, गाने के काम भी आती है, यह बात हिमेश ने साबित कर दी है।

सबसे अच्छी बात यह है कि वह अब जिद कर रहे हैं कि वह उस फिल्म में ही काम करेंगे, जिसमें वह हीरो भी हों, डाइरेक्टर भी हों, म्यूजिक डाइरेक्टर भी हों, और हां सिंगर भी हों।

बस बहुत जल्दी वह कहने वाले हैं कि हीरोईन का रोल भी वह वह खुद करेंगे। यानी फिल्म में डबल रोल वाले हिमेश रेशमिया नजर आयेंगे हीरोईन के रुप में।

हिमेश जी अगर हीरोईन बने, तो बहुत मामला सुधर जायेगा।

हिमेशजी कित्ते कपड़े पहनते हैं। सिर तक को टोपी से ढकते हैं। अब की हीरोईनें कुछ भी ना ढकने में यकीन करती हैं। इस तरह से फिल्मों में नया चेंज आयेगा, और धीमे-धीमे हीरोईनों को प्रेरणा मिलेगी कि अगर हिमेशजी की तरह कामयाब होना है, तो सिर-विर ढक कर काम करना चाहिए। थोड़े दिनों में तमाम हीरोईनें टोपी पहने दिखायी देंगी।
पर खतरा यह है कि कई हीरोईनें यह जिद ना पकड़ लें, कि वे सिर्फ टोपी पहनेंगी।

वैसे कुछ दिनों बाद हिमेशजी डिमांड करेंगे कि विलेन का रोल भी वह खुद ही करेंगे।

ये भी ठीक ही होगा जी। बड़ी आसानी से काम हो जायेगा, बतौर विलेन हिमेशजी जिसे टार्चर करना चाहेंगे, उसे बांधकर उसे पचास गाने सुनायेंगे, खास तौर पर वो वाले गाने, जिनमें आखिर में कुत्ते के चीखने की सी आवाज आती है।

इत्ते टार्चर के बाद तो विलेन जो चाहे करवा सकता है। नहीं क्या।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

Wednesday, July 25, 2007

कुछ फेयर औऱ हैंडसम प्रश्नोत्तर-महिलाएं इसे एकदम ना पढ़ें

आलोक पुराणिक

सवाल-महिलाओं के लिए फेयर एंड लवली क्रीम थी पर पुरुषों के लिए फेयर एंड हैंडसम क्रीम आयी है। क्या पुरुषों को लवली नहीं होना चाहिए। उनका काम सिर्फ हैंडसम होने से चल जाता है क्यों।

जवाब- हैंडसम का मतलब है हैंड में सम यानी रकम, तब ही पुरुष का मामला जमता है। उनका काम सिर्फ लवली होने से नहीं चलता। वैसे अब तो महिलाओं का भी हैंडसम होना जरुरी है। सिर्फ लवली के बाजार भाव बहुत डाऊन हैं।

सवाल-जो पुरुष फेयर एंड हैंडसम नहीं लगाते, वे क्या हैंडसम नहीं होते।

जवाब-नहीं चुपके से लगाते होंगे। बताते नहीं है, क्या पता बाद में बतायें। जैसे बरसों तक अमिताभ बच्चन की शानदार एक्टिंग देख कर सब समझते रहे कि अमिताभजी की मेहनत-समर्पण इसके पीछे है। पर उन्होने अब जाकर बताया कि वो वाला तेल, ये वाली क्रीम, ये वाला कोल्ड ड्रिंक, वो वाला च्यवनप्राश इसके लिए जिम्मेदार हैं। असली बात लोग बाद में बताते हैं जी।

सवाल-पुरुष हैंडसम हो जाये, तो क्या होता है।

जवाब-बेटा क्लियर है, ज्यादा कन्याएं उसकी ओर आकर्षित होती हैं।

सवाल-क्या पुरुष के जीवन का एकमात्र लक्ष्य यही है कि कन्याएं उसकी ओर आकर्षित हों।

जवाब-नहीं इमरान हाशमी की तमाम फिल्में देखकर पता लगता है कि पुरुषों का लक्ष्य दूसरों की पत्नियों, विवाहिताओं को आकर्षित करना भी होता है।

सवाल-मैं अगर फेयर एंड हैंडसम लगाऊं और फिर भी सुंदरियां आकर्षित न हों, तो क्या मैं कंपनी पर दावा ठोंक सकता हूं।

जवाब-नहीं, तमाम इश्तिहारों के विश्लेषण से साफ होता है कि सुंदरियां सिर्फ क्रीम लगाने भर से आकर्षित नहीं होतीं। इसके लिए वह वाला टायर भी लगाना पड़ता है। इसके लिए वो वाली बीड़ी भी पीनी पड़ती है। इसके लिए वो वाली सिगरेट भी पीने पड़ती है। इसके लिए वो वाली खैनी भी खानी पड़ती है। इसके लिए वो वाला टूथपेस्ट भी यूज करना पड़ता है। इसके लिए वो वाला कोल्ड ड्रिंक भी पीना पड़ता है।

सवाल-बंदा इसी सब में सुबह से शाम तक बिजी हो जायेगा, तो फिर वह और काम क्या करेगा।

जवाब-हां,यह सब इश्तिहारों में नहीं बताया जाता कि सुंदरियों को आकर्षित करना पार्ट-टाइम नहीं फुल टाइम एक्टिविटी है।

सवाल-तमाम इश्तिहार पुरुषों से आह्वान करते हैं कि वे ये खरीद कर या वो खऱीद कर सुंदरियों को आकर्षित करें, पर सुंदरियों से यह आह्वान नहीं किया जाता कि वे ये वाला टायर खरीदकर या वो वाली सिगरेट पीकर या बीड़ी पीकर या टूथपेस्ट यूज करके पुरुषों को आकर्षित करें। इसका क्या मतलब है।

जवाब इसका यह मतलब है कि इस देश की महिलाएं सहज और स्वाभाविक रुप से आकर्षक हैं, पर ऐसा पुरुषों के बारे में नहीं कहा जा सकता। सो महिलाओँ को आकर्षित करने के लिए उन्हे किसी टायर, किसी सिगरेट, किसी बीड़ी की जरुरत पड़ती है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं इस देश की महिलाएं स्मार्ट और आकर्षक हैं।

और पुरुष ढीलू, चिरकुट, घोंचू च घामड़ हैं।


आलोक पुराणिक मोबाइल -09810018799

Tuesday, July 24, 2007

होनोटूंबू महाद्वीप की खोज

होनोटूंबू महाद्वीप की खोज
आलोक पुराणिक
बताओ अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पर चढ़ाई करने में सफल क्यों हो गया।
क्योंकि जीटी करनाल रोड पर उन दिनों ट्रेफिक नहीं होता था। अब का सा टाइम होता, तो ट्रेफिक में फंस जाता। ना दिल्ली की तरफ बढ़ पाता, ना पीछे की और जा पाता।
भिखारी भीख मांग-मांगकर परेशान कर देते। ट्रेफिक जाम के चक्कर में खीरे वाले खीरे के भाव बढ़ा देते। खीरे खरीदने में ही लूट का सारा माल खत्म हो लेता।
फिर भी ट्रेफिक नहीं खुलता। पता चलता कि आगे बीचों-बीच सड़क पर एक ट्रक खराब हो गया है। ट्रक के पुरजे लेने के लिए ड्राइवर करोलबाग दिल्ली गया है, पैदल। परसों लौटेगा।
मार ट्रेफिक की झाऊं-झाऊं में ही नादिर शाह की सेना दम तोड़ देती।
बड़े-बड़े युध्दवीर भारतीय ट्रेफिक से परास्त हो जाते।
ट्रेफिक अपने आप में युध्द सा है जी।
देखिये किसी सुबह या शाम, कैसे कतार में कार वगैरह एक के बाद खड़े होते हैं। मानो कहीं युध्द के लिए प्रयाण हो रहा हो। वैसे ट्रेफिक का मामला इधर से गौर से देखा, तो बहुत बातें नजर आयीं। इधर हुआ यूं कि आगरा स्थित एक मित्र ने लव मैरिज की और दिल्ली स्थित एक मित्र ने भी लव मैरिज की। छह महीने बाद आगरा से लडाई-झगड़े के समाचार आने लगे। दिल्ली शांत थी।
पूछताछ की तो पता चला कि पति महोदय तो दिल्ली से गुड़गांव नौकरी करने जाते हैं, और पत्नी करीब चालीस किलोमीटर ड्राइव करके जाती है।लड़ाई-झगड़े का सारा कोटा दोनों रास्ते में अलग -अलग निपटा कर लौटते हैं।

आगे की कार वाले को गालियां, पीछे की कार वाले की गालियां। उस बंदे को सामूहिक गालियां,जिसकी कार सड़क के बीचों-बीच पंक्चर हो गयी हो।

मुझे लगता है कि बुश इतनी गालियां साल भर में भी नहीं खाते होंगे, जितनी गालियां बीच सड़क में खराब कार का मालिक खाता है।

जिसे सहनशीलता बढ़ाने का कोर्स सिखाना हो, उसकी कार खराब करके सड़क के बीचों-बीच खड़ा कर दो। सारा हेकड़ी फरार हो जायेगी।
मार हार्न पे हार्न। रास्ते में इतनी मार-धाड़ हो लेती है कि घर पर चाऊं-चाऊं के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती।
यह ट्रेफिक का सकारात्मक पक्ष है। घरों में शांति इसलिए है कि बंदा निचुड़ कर लौटता है, अब झगड़ा कैसे हो। संडे को झगड़े का टाइम मिलता है, तो बंदा उसमें पड़ोसियों से झगड़े कि घर वालों से। जिन शहरों में ट्रेफिक ज्यादा होता है, उन शहरों में घरों में शांति रहती है।
ट्रेफिक बढ़ता है, तो बंदों में कोलंबस प्रवृति बढ़ती है, वो नये-नये इलाके ढूंढ़ते हैं। एक बार मैंने दिल्ली में एक जगह कार पार्किंग की ठीया तलाशने की कोशिश की और वह तलाशने की कोशिश में चलता गया, चलता गया, बाद में मुझे पता लगा कि मैं बीकानेर के आसपास हूं।


भविष्य में बंदे इस लपेटे में नये द्वीप या नये महाद्वीप तलाश सकते हैं।
नया इतिहास यूं लिखा जायेगा-होनोटूंबू महाद्वीप किसने खोजा था।
आलोक पुराणिक ने, पार्किंग स्पेस की तलाश में वह बहुत दूर, बहुत दूर, बहुत ही दूर निकल गये, वहां नया महाद्वीप मिल गया जी।

आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Monday, July 23, 2007

भागते भूत को सूट

भागते भूत को सूट
आलोक पुराणिक
यह निबंध बीए के उस छात्र की कापी से लिया गया है, जिसने एक निबंध प्रतियोगिता में टाप किया है। निबंध का विषय वह पुरानी कहावत थी-भागते भूत की लँगोटी।
इस कहावत में कुछ गड़बड़ है, भूत लँगोटी क्यों पहनता है।
क्या भूतलोक में भी एक-दूसरे से शर्म करने का प्रचलन है।
भूत लँगोटी पहनकर क्या साबित करना चाहता है, क्या उसके पास लँगोटी है या यह साबित करना चाहता है कि भूत लोक में भी नेतागण हैं जो इत्ते लुटेरे हैं, कि सामान्य भूतों के लिए सिर्फ लँगोटी बचती है। इस तरह से पता चलता है कि भूत लोक और इंसानी लोक कई तरह की समानताएं हैं।
भागते भूत की लँगोटी कहावत से यह पता नहीं चलता कि भूत भाग क्यों रहा है।


और उसकी लँगोटी में किसी की दिलचस्पी क्यों है। भूत की लँगोटी में दिलचस्पी किसी आम आदमी की नहीं हो सकती, जो अपनी ही लँगोटी बचाने में बिजी रहा है।
मेरे हिसाब से जरुर कोई विज्ञापन वाला उसके पीछे लगा है , वह जानना चाह रहा है कि आखिर भूत ने किस ब्रांड की लँगोटी पहनी है।

भूत की लँगोटी का ब्रांड पता करके विज्ञापन वाला भूत को प्रेरित करना चाहता है कि वह उसके ब्रांड की लँगोटी ही पहने।
पर यहां एक मसला और उठता है कि जो भूत लँगोटी पहनकर भाग रहा है, उसे लगता है अपनी महत्ता का पता नहीं है।
वह भागे जा रहा है, और तमाम टीवी चैनलों वाले उसके पीछे भागे जा रहे हैं, किसी भूत वाले प्रोग्राम में भूत को सैट करने के लिए।
भूत से कमाई होती है, उससे कई टीवी चैनल वालों के सूट-पैंट बनते हैं। हो सकता है कि कोई टीवी चैनल वाला कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिए भूत को सूट-पैंट देने के लिए भूत के पीछे भाग रहा है।
इसलिए नयी कहावत यूं हो सकती है-भागते भूत को सूट, भूत यूं ना फूट।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Sunday, July 22, 2007

संडे सूक्ति-सब्र का फल सिर्फ सेब

संडे सूक्ति-सब्र का फल सिर्फ सेब
आलोक पुराणिक
(सेब एसोसियेशन द्वारा स्पासंर्ड एक रिसर्च परियोजना में एक मैंने यह निष्कर्ष निकाला था कि आदम और हव्वा पर स्वर्ग में सेब खाने की मनाही नहीं थी। हां, किसी भी किस्म की प्री-सेब और पोस्ट –सेब गतिविधियों की बंदिश जरुर थी। सेब एसोसियेशन का तर्क है कि सेब पर बंदिश कैसे हो सकती है, बच्चों तक को समझाया जाता है कि एन एपल ए डे, कीप्स डाक्टर अवे। सो साहब सेब को बदनाम ना किया जाये कि परमात्मा ने सेब खाने पर बंदिश लगा रखी। बंदिशें और थीं। और वे मानी भी गयीं बहुत समय तक, आदम और हव्वा ने पता नहीं कितने बरस सिर्फ परमात्मा के प्रवचन और सेब पर निकाल दिये और संयमपूर्वक रहे। आगे पढ़िये... )
संयम के परिणाम कितने घातक हो सकते थे, यह सोचकर घबरा उठता हूं।
यह सोचकर ही घबराहट होती है कि कि अगर आदम और हव्वा उस दिन संयम कर जाते, तो क्या वे स्वर्ग से ठेले जाते, नहीं। तो क्या आदम आदमियों की दुनिया बना पाता, नहीं। क्या आज हम सब यह झमाझम दुनिया देख पाते, नहीं। आदम हव्वा अगर संयम कर जाते, तो निश्चय ही वो स्वर्ग में ही रह रहे होते। पर क्या करते स्वर्ग में रहकर। अब तक जितनी डिटेल्स मिलती हैं, उनके अनुसार यही कहा जा सकता है कि वे स्वर्ग में संयम करते हुए कुछ और सेब खा रहे होते। बार बार लगातार।
तब कहावत शायद यह होती –सब्र का फल सेब।
सब्र से सेब मिलता है, तो सेब से क्या मिलता, और अधिक सब्र करने की शक्ति। कितनी बोरिंग होती वह वो लाइफ। सुबह-सुबह उठते आदम-हव्वा सब्र करते, फिर सेब खाते। दोपहर में फिर सब्र करते, फिर सेब खाते। शाम को फिर सब्र, फिर सेब। रात को......। कुल उपलब्धि ये होती कि आदम और हव्वा ने पूरी जिंदगी में पाँच-सात सौ टन सब्र किया और एक हजार टन सेब खाये।
सो बोरिंग।
हे भगवान इतनी सेबमयी और सब्रमयी जिंदगी किसी को नसीब न हो। हमें गर्व है कि आदम –हव्वा अकलमंद साबित हुए । संयम वगैरह के चक्कर में नहीं पड़े, सेब से आगे की उपलब्धियां हासिल कीं। वैसे संयम वगैरह के मामले बहुत घपले वाले हैं।
घपला यूं कि संयम के जो परिणाम बताये जाते हैं, वो वस्तुत वे ही परिणाम होते हैं, जो संयम न करने वालों को वैसे ही हासिल हो जाते हैं।
एक बार मैंने एक नौजवान को समझाने की कोशिश की – बेटा संयम, कन्याओं के पीछे नहीं भागना चाहिए। संयम से चरित्र को बचाये रखना चाहिए।
वो बोला-फिर क्या गुरुवर।
मैंने कहा कि बेटा इस तरह से संयमशील जीवन बिताने वाले सीधे स्वर्ग जाते हैं।
नौजवान ने फिर आगे पूछा-फिर गुरुजी।
मैंने आगे बताया-स्वर्ग में अप्सराएं, परम सुंदरियां हैं। सोमरस है। आनंद ही आनंद है दीर्घकाल तक।
नौजवान बोला-गुरुजी समझ गया कि संयम का रिजल्ट यह होता है कि बंदा बाद में चाहे तो इत्मीनान से दीर्घकाल तक चरित्रहीन और संयमहीन हो सकता है।
उस नौजवान से बातचीत के बाद में मैने संयम और चरित्र की बात करना छोड़ दिया है।
संयम के मामले बहुत घपले वाले हैं। वैसे कुछ लोगों को देखकर लगता है कि काश इनके मां-बाप ने संयम किया होता। पर मेरे सोचने से क्या होता है। सोचने को तो मैं यह भी सोचता हूं कि कितना अच्छा होता अगर मैं आचार्य वात्स्यानन के टाइम में पैदा हुआ होता। विद्वान बताते हैं कि उस दौर में किसी सुंदरी को घूरना सिलेबस में शामिल था। तरह-तरह की डिटेल्स के लिए शोधरत आचार्य के छात्रों को यह छूट थी कि वे किसी सुंदरी को घूर सकते थे। यहां वहां कहीं भी किसी भी एंगल से तांक-झांक कर सकते थे। पकड़े जाने पर कह सकते थे कि देख लो आई-कार्ड रिसर्च स्कालर, आचार्यजी वात्स्यानन की किताब के लिए केस स्टडी तैयार कर रहे हैं, देख लो आई-कार्ड और ये तांक-झांक का अथारिटी लैटर।
अहा हा कैसा शोध प्रोत्साहक माहौल रहा होता।
सारे प्रदेशों की सुंदरियों के लक्षणों, विशेषताओं पर अध्ययन करने के लिए रिसर्च स्कालर सुंदरियों से विधिवत सहयोग मांग सकते थे। किसी भी सुंदरी से अनुरोध कर सकते थे, हे सुंदरी संपूर्ण अध्ययन करने दे, कहीं रोक मत, कहीं टोक मत। विस्तार से लिखना है। ज्ञान में योगदान के मामले में तू अनुदार हुई, तो आगे की पीढ़ियां तुझे कोसेंगी।
अब वो बात नहीं है। सुंदरियों में वो उदारताएं नहीं रहीं। शिक्षा के प्रति वैसा भाव नहीं रहा। रिसर्च स्कालरों के साथ सहयोग करने में वैसी तत्परता सुंदरियों में नहीं रही। इसलिए जब कोई कहता है कि शिक्षा का स्तर गिर रहा है, तो मैं खट से सहमत हो जाता हूं।
मैं फुल सीरियसता के साथ सोचता हूं कि मैं रीतिकाल के इत्ते बाद क्यों हुआ।
रीतिकाल में होता, तो रोज किसी राजा के खर्च पर पाँच –दस सुंदरियों का विश्लेषण करके कवित्त गढ़ता।
क्या धांसू दिन कटता होगा कवि का और सुंदरी का भी।
कविता के प्रति ऐसा भाव सुंदरियों में नहीं रहा। किसी कवि को, किसी रचनाकार को (व्यंग्यकार समेत) इस तरह से टाइम देने का चलन भी अब सुंदरियों में नहीं रहा। इसलिए जब कोई कहता है कि अब समाज में साहित्य के प्रति अनुराग भाव नहीं रहा, मैं खट से सहमत हो जाता हूं।
वैसे मेरे सहमत होने ना होने से होता भी क्या है। सुंदरियां बहुत संयमी होने लगी हैं।
वैसे अब की आम सुंदरी को देखता हूं-तो ईमान से सारे भाव एक तरफ, पैर छूकर उसे सम्मानित करने की इच्छा जगती है – आम सुंदरी सुबह पाँच उठकर घर भर के लिए खाना बनाये, पैक करे, बच्चों को स्कूल भेजे, फिर लुच्चों, टुच्चों के साथ बस में टंगकर दफ्तर पहुंचे। वहां कुंठितों को झेले, फिर घर आकर बच्चों के होमवर्क में अपना दिमाग ठेले, अगली सुबह के कामों की लिस्ट बनाकर अगले दिन के तनावों को पहले ही ले ले।
हे आचार्य वात्स्यानन इन सुंदरियों की परेशानियां देखते, तो काम सूत्र भूल जाते, सुंदरियों के इतने कामों को आसान करने के सूत्र लिखते।
हे आदरणीय प्रणम्य सुंदरी, मुझे पता है काम सूत्र भूलकर तुझे तरह-तरह के कामों के सूत्र की तलाश में ही भिड़े रहना होगा। क्योंकि तेरे कामों में हेल्प के लिए रीतिकालीन लुच्चे नहीं आयेंगे।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Saturday, July 21, 2007

शेरनी पर कूड़ा

शेरनी पर कूड़ा
आलोक पुराणिक
दूर से देखने पर तो वह ट्रक लग रहा था। और था भी।
थोड़ी कम दूरी से देखा तो उस पर लिखा था-विधायक की शेरनी-।
शेरनी पर बहुत कूड़ा लदा हुआ था।
शेरनी नगर निगम के ठेके पर चल रही थी । विधायकजी पहले जेबकट थे, फिर लघुस्तरीय चक्कूबाज हुए। कालांतर में प्रगति करते हुए विधायक हुए। विधायक होकर ट्रांसपोर्ट का काम खोला, जिसके तहत कई शेरनियां चल रही थीं। इनमें कई तो नगर निगम का कूड़ा ढो रही थीं। कुछ शेरनियां यमुना से रेत चुरा कर रेत के ठेकेदारों की मदद कर रही थीं। चार शेरनियां उन मुहल्लों में पानी की सप्लाई लेकर जाती थीं, जिन मुहल्लों में पानी की सप्लाई को विधायक के बंदे ग़डबड करा देते थे। इस तरह से विधायक की शेरनियां पानी बेचने के कारोबार में भी संलग्न थीं। हां, विधायकजी के दारु के ठेकों पर दारु पहुंचाने के काम भी इन्ही शेरनियों से लिया जा रहा था।
लोग शेरों की दशा पर चिंतित हो रहे हैं। शेरनियों का क्या हाल है, इस पर सोचने की फुरसत किसी के पास नहीं है।
वाइल्ड लाइफ वाले इस और कुछ ध्यान दें ना, शेरनियों के नाम पर ना जाने क्या-क्या हो रहा है।
अभी देखा एक बहुत जबरजंग जब्बर टाइप का ट्रक, जिसने कल स्कूली बच्चों से भरी वैन को मार गिराया था। बच्चों का नसीब, बच गये।
ट्रक पर लिखा था-मालिक का पैसा, ड्राइवर का पसीना
रोड पर चलती है, बन के हसीना।
जिसे हसीना बताया जा रहा था, उस पर लगभग हत्या की जिम्मेदारी थी।
अरे हसीनाओं, मिलकर प्रोटेस्ट करो कि तुम्हारा नाम कहां-कहां लिया जा रहा है।
जबरजंग ट्रक हसीना हुआ जा रहा है, कोई रोकने वाला नहीं है।
ट्रकों में ऐसा-ऐसा कुछ हो रहा है, कि राष्ट्र का ध्यान उस ओर जाना चाहिए।
एक और बहुत कातिल टाइप का ट्रक देखा, उस पर लिखा हुआ था-आई तुझा आशीर्वाद (मां तेरा आशीर्वाद)। ट्रक धडधडाता हुआ दौड़ रहा था, सडक के किनारे एक खोमचे को उसने लगभग उड़ा ही दिया था। ये अगर किसी मां का आशीर्वाद है, यह सोचकर मन घबराता है। भारतवर्ष की सारी मांओं को एक परिवहन मंत्रालय से मांग करनी चाहिए कि ट्रकों पर यह लिखना बंद हो-मां तेरा आशीर्वाद।
मांओं कुछ करो। अपने आशीर्वाद का ऐसा ट्रकीकरण न होने दो।
जरा यह भी सोचिये, अगर किसी मां का आशीर्वाद यह ट्रक है, तो उस मां के शाप क्या होंगे-शायद वे हवाई जहाज, जो इराक पर बम बरसाते हैं। नहीं क्या।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

Friday, July 20, 2007

अर्निका, उत्पातठेलू, वितंडात्राप्तक, वैदिगोषांतकू, डल्कामारा...

अर्निका, उत्पातठेलू, वितंडात्राप्तक, वैदिगोषांतकू, डल्कामारा..........
आलोक पुराणिक
लेखक की कई आफतों में से एक यह है कि उसके बारे में माना जाता है कि वह पढ़ता भी होगा।
लिखने वाले जानते हैं कि लिखने के लिए यह जरुरी नहीं है कि पढ़ा जाये बल्कि बहुत हिट किस्म के लेखक तो वही होते हैं, जो पढ़ने में टाइम वेस्ट नहीं करते।
अजी दूसरों की ही पढ़ने में रह जायेंगे, तो अपना कब लिखेंगे जी।
पर नहीं, लेखक को लोग पाठक भी मानते हैं और अपने बच्चों के नाम रखवाने चले आते हैं। नाम बताने में आफत नहीं, विष्णु प्रसाद से लेकर रामनारायण कुछ भी हो सकता है।
पर आफत तब होती है, जब मां-बाप कहते हैं कि कुछ नयी चाल का सा होना चाहिए।
ऐसा होना चाहिए जैसा कभी किसी का न हुआ हो। किसी बच्चे के नाम रखने की क्षमता के हिसाब से फैसले होने लगें, तो जी मैं कालिदास और शेक्सपियर से बड़ा राइटर हूं, अब तक करीब 6789 बच्चों के नाम रख चुका हूं।
पर अब दिक्कत होने लगी है, कहां से लायें यूनिक नाम।
पहले बहुत दिनों में मैंने बिजली विभाग से काम चलाया। नया नाम कोई पूछने आता-मैं कहता अगर लड़का हो, तो करंट रख दो और लड़की हो, तो विद्युत।
पहले लोग चौंकते थे कि करंट और विद्युत। कुछ औड सा नहीं लगेगा जी।
मैं समझाया करता था कि देखिये अब सारे टाप काम औड तरीके से होते हैं। पहले नेता सिंपल घोटाले करते थे, मकान में खा गये, पुल में खा गये। अब नेता चारा खाता हैं-कुछ औड सा लगता है क्या, नहीं ना। टाप क्लास बंदों के काम कुछ औड से होते हैं। सो आप करंट रखिये।
सो मेरे मुहल्ले में अब करीब पंद्रह करंट खेलते हैं।
और विद्युत नामक बालिकाओँ की संख्या भी करीब बीस है।
विद्युत नाम से शुरुआत में कुछ मांओं ने आपत्ति की, पर मैंने उन्हे समझाया कि देखिये पुरानी फिल्मों में हीरोईनों के नाम बिजली हुआ करता था। यह विद्युत उसी बिजली का सुधरा हुआ रुप है। एक ही परिवार में एक बालक हो, एक बालिका हो, तो क्या धांसू सैट बनता है-करंट और विद्युत।
मेरे मुहल्ले में करीब सात परिवार ऐसे हैं, जहां विद्युत और करंट दोनों हैं।
अलबत्ता बिजली फिर भी गायब रहती है।
लोग विद्युत और करंट से ऊबने लगे हैं।
बताइए, विद्युत और करंट चाहिए, पर नहीं चाहिए।
जब होम्योपैथी बहुत पापुलर नहीं थी, तब मैं नामों के लपेटे में होम्योपैथी में घुसा था। उस दौर की कई अर्निका नामक बालिकाएं अब तो कालेज भी जा रही हैं। एक बहुत उत्पाती बच्चे का नाम मैने डल्कामारा भी रखा था। कई बच्चे कैलकेरिया फास नाम से भी हैं।
पर अब होम्योपैथी सीरिज के नाम नहीं चल पाते।
अब नामकरण के लिए एकदम स्पांटेनियस बुद्धि का इस्तेमाल करता हूं। जो बन जाये।
एक बालक कल बहुत उत्पात मचा रहा था, मां की गोद में। मां कान्वेंट शिक्षिता, एकैदम-आई डोंट नो हिंदी, यू नो-टाइप। मां का आग्रह था कि कुछ डाइनामिक रखिये-मैंने कहा-उत्पातठेलू। वाऊ-कहकर मां ने ग्रहण किया।
इधर के मां-बाप नाम का यूनिक साउंड भर देखते हैं, मतलब-वतलब नहीं ना पूछते।
कल दो विकट उत्पात बच्चों के डाइनामिक नाम रखे हैं- विंतडात्राप्तक, वैदिगोषांतकू।
मतलब ना पूछिये जी।
मुझे भी नहीं मालूम, पर नाम नयी चाल के डाइनामिक से हैं ना।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Thursday, July 19, 2007

बिप्स के लिप्स की टिप्स

बिप्स के लिप्स की टिप्स..........
आलोक पुराणिक
उस टीवी चैनल का रिपोर्टर कुछ दिनों से कुछ ज्यादा ही मेहरबान दिख रहा है। उसने तीसरी बार मेरी प्रशंसा की। प्रशंसा को लेकर अपना फंडा यह है कि अगर कोई एक बार प्रशंसा करे, तो इसे शिष्टाचार मानना चाहिए।
दूसरी बार प्रशंसा लिफ्टाचार की वजह से की जा सकती है। अगर किसी के कार-स्कूटर पर लिफ्ट चाहिए, और लगातार चाहिए, तो इस तरह की प्रशंसा आम तौर पर कर दी जाती है।
पर तीसरी बार की प्रशंसा में भ्रष्टाचार को सूंघना चाहिए। मैं भ्रष्टाचार को सूंघने लगा। मैंने पूछा-गुरु क्या खेल है। फोकटी में प्रशंसा क्यों।
वह बोला-जी आपने जितने आइडिये मुझे मजाक-मजाक में दिये थे, उन सब पर हमारे टीवी चैनल ने प्रोग्राम बना लिये हैं। सारे के सारे हिट जा रहे हैं। कुछ और आइडिये दीजिये ना।
क्या मतलब-मैंने पूछा।
देखिये हमारे बास का कहना है कि जितने भी घटिया टाइप लेखक हैं, उन सबके पास हिट टीवी प्रोग्रामों के लिए बहुत ही कारगर आइडिये हैं। सो सर आपको पकड़ा है-वह बिलकुल भक्ति भाव से बोला।
उसके मुंह पर छाई सच्चाई देखकर मुझे लगा कि उसने यह बात सच में मेरे सम्मान में ही कही है। सो साहब, इस खाकसार ने कुछ और आइडिये उस टीवी चैनल को दिये हैं। आप भी गौर फरमायें-
बाबी चार्मिंग की गुड मार्निंग
बाबा इधर टीवी पर बहुत हो लिये हैं। अब बाबी चाहिए। कुछेक स्मार्ट बाबियों की सख्त दरकार हैं। ये स्मार्ट बाबियां अगर ये बतायें कि जीवन क्षण –भंगुर हैं, तो कई दर्शक इस क्षण को ही जीवन का सार्थक क्षण मानकर देखेंगे। बल्कि इसमें कुछ अमेरिकन कन्याओं को बतौर अध्यात्म गुरु पेश किया जाये। कार्यक्रम का नाम हो- बाबी चार्मिंग की गुड मार्निंग ।
अमेरिकन बाबी को लाने से प्रोग्राम कुछ अपमार्केट बनेगा। क्या है कि देसी बाबाओं से मार्केट डाऊन मार्केट हो जाता है। नहीं चलेगा।
इस प्रोग्राम में क्या होगा, जी वही होगा, जो और आध्यात्मिक कार्यक्रमों में होता है।
थोड़ा सा सत्य-सत्य, बाबाजी के प्रचचनों ने हमे इतना सुखी बनाया-यह बताते हुए बाबाजी के कुछ भृत्य, फिर अंत में बाबीजी के कुछ नृत्य।

बिप्स के लिप्स के टिप्स
यह प्रोग्राम बिपाशा बसु पेश करेंगी। या जो लड़की पेश करे, उसका नाम बिपाशा रख दिया जाये। बिपाशा को अपमार्केट इलाकों में यही कहा जाता है-बिप्स।
वह ब्यूटी की टिप्स बतायेंगी, सिर्फ मर्दों को।
कमर का साइज कम करने के लिए करेले का जूस टमाटर के छिलकों में मिलाकर खायें, पानी की कैलोरी कम करने के लिए उसे उस स्पेशल छलनी से छानें, जिसका निर्माता यह प्रोग्राम स्पांसर करेगा।
बताओ साइज, ले जाओ प्राइज-यह कांटेस्ट इस प्रोग्राम में चलाये जायेगी।
इसमें पूछा जायेगा कि बताओ बिपाशा की जीन्स का साइज क्या है 30, 32, 36, 38, जिस दर्शक का उत्तर सही होगा, उसे बिपाशा अपनी एक जीन्स बतौर गिफ्ट देंगी, स्पेशल प्राइज पर सिर्फ पांच हजार रुपये पर सिर्फ।
आप ही बताइए। प्रोग्राम चलेगा या नहीं।
आलोक पुराणिक मोबाइल -09810018799

Wednesday, July 18, 2007

मन के मैल का वाशिंग पाऊडर उर्फ छोटी लुच्चई

मन के मैल का वाशिंग पाऊडर उर्फ छोटी लुच्चई
आलोक पुराणिक
सामने उन्तीस ब्रिटिश पौंड का चेक पड़ा है यानी दो हजार रुपये से ज्यादा की रकम। यह रकम मैंने गरीबी से कमाई है। एक इंटरनेशनल शोध संगठन ने भारत में गरीब बच्चों पर रिपोर्ट जारी की थी। एक विदेशी मीडिया हाऊस ने इस पर मेरे विचार चाहे थे, जो मैंने करीब सौ शब्दों में व्यक्त किये थे। गरीबी इतने चकाचक रिटर्न देती है, पहले पता नहीं था।
गरीबी से कमायी गयी दो हजार रुपये की अमीरी में मैं अपराधबोध और शर्म में डूब ही रहा था कि एक सीनियर प्रोफेसर ने बताया कि वह न्यूयार्क जा रहे हैं, गरीबी पर इंटरनेशनल लेक्चर देने। गरीबी का यह टूर उन्हे करीब दो लाख रुपये से अमीर कर देगा, उन्होने बताया।
उनके दो लाख रुपये के आगे मेरी उन्तीस पौंड की शर्म कुछ कम हो गयी।
शर्म से पार पाने का यही सही फंडा है आजकल।
किसी की जेब काटने का अपराध बोध हो, तो वह खबर पढ़ लेनी चाहिए कि लुटेरों में माल लूटकर हत्या भी कर दी।
मन हल्का हो जाता है, देखो, हम कितने करुणावान, किसी की जान नहीं लेते।
चारे में रकम खाने की शर्म परेशान कर रही हो, तो वह खबर पढ़नी चाहिए, जो बताती है कि नेताजी गरीब बच्चों के दूध के लिए रखी गयी रकम खा गये।
मन का मैल कम हो जाता है। अपने बारे में पावन विचार उठने लगते हैं-हाय हम कितने दयालु बच्चों को नहीं मारते।
यह तरकीब मुझे इनकम टैक्स विभाग के एक चपरासी ने सिखायी थी।
रिश्वत लेते हुए वह बताता था-जी हम तो लाख दरजा अच्छे हैं, उस वाले सरकारी अस्पताल को देखिये। वहां पोस्टमार्टम विभाग के चपरासी लाश को हैंड ओवर करने तक के लिए रिश्वत खाते हैं। हम कितने अच्छे, सिर्फ इनकम में से रिश्वत निकालते हैं, लाश से नहीं।
कमीनेपन को विकट घनघोर कमीनेपन के आगे रख दें, यह तरकीब मन के मैल का सर्फ एक्सेल साबित होती है।
खैर प्रोफेसर साहब दो लाख कमायेंगे गरीबी से, मैं सिर्फ दो हजार। यह फर्क है लोकल और इंटरनेशनल का। अमेरिका वाले गरीबी की कदर ज्यादा करते हैं।
गंजबासौदा के एक कालेज से व्याख्यान के लिए निमंत्रण आया है कि गरीबी पर व्याख्यान दे जाइए। बस से आने-जाने का किराया और दो सौ इक्यावन मानदेय देंगे।
मरभुख्खे, गरीब गंजबासौदा वाले, चले हैं इतनी सी रकम में चले हैं गरीबी पर व्याख्यान सुनने।
गरीबों को गरीबी पर व्य़ाख्यान सुनाना बेकार है जी।
गरीबी पर व्य़ाख्यान सिर्फ उनको सुनाना चाहिए, जो उसे अफोर्ड कर सकें।
एड्स, एड्स के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं-सीनियर प्रोफेसर मुझसे पूछ रहे हैं।
बहुत खतरनाक बीमारी है-मैं बता रहा हूं।
अरे, खतरनाक सबके लिए नहीं है। अफ्रीका में एड्स-इस पर एक रिसर्च पेपर तैयार करो, कनाडा से पांच लाख दिलवा सकता हूं। एड्स का चकाचक सीजन है आजकल।-प्रोफेसर कह रहे हैं।
पर अफ्रीका के एड्स पर कनाडा में पेपर, इसका क्या मतलब है-मैंने प्रोफेसर से पूछा।
अफ्रीका के लोग अफोर्ड कहां कर सकते हैं एड्स पर रिसर्च। अरे रिसर्च वहां के लिए तो की जायेगी, जहां वाले अफोर्ड कर सकते हैं-प्रोफेसर ने कहा।
दोस्तो अब मैं एड्स पर रिसर्च में लग गया हूं, जब कभी अपराधबोध और शर्म में डूबता हूं, तो उन प्रोफेसरों को देख लेता हूं, जो इराक में मरते लोग और लोकतंत्र की विजय नामक विषय पर शोध कर रहे हैं।
मन का मैल मिट जाता है।
आलोक पुराणिक--मोबाइल -9810018799

Tuesday, July 17, 2007

राम के बाबू

राम के बाबू
आलोक पुराणिक
मां हड़का रही हैं, रोज सुबह ब्रह्ममुहुर्त में उठकर ये क्या अगड़म-बगड़म पोस्ट करता है। कुछ राम के नाम का चिंतन किया कर।
मां की बात मानी है आज।
राम पर चिंतन किया है।
राम पर चिंतन करते हुए राम बाबू याद आ गये, ड्राइविंग लाइसेंस दफ्तर वाले। जिन्होने कई दिनों से मेरा लाइसेंस इसलिए लटका रखा है कि मैं थ्रू प्रापर चैनल क्यों नहीं आया। ड्राइविंग लाइसेंस दफ्तर में थ्रू प्रापर चैनल का मतलब होता है, अफसर टाइप एक दलाल के थ्रू एक दलाल टाइप के अफसर तक पहुंचना। सीधे अफसर तक पहुंच जाओ, तो चैनल डिस्टर्बैंस मान लिया जाता है। डिस्टर्बैंस की सजा यह है कि दफ्तर के राम बाबू मामला अटका देते हैं। सो मैं भी लाइन में अटका हुआ था। सो राम याद नहीं आ रहे थे, राम बाबू याद आ रहे थे।
राम के दरबार के कई फोटू देखे हैं। उसमें सीने को फाड़कर दिखाते हुए हनुमान देखे हैं, पीछे सन्नद्ध, कटिबद्ध मुद्रा में लक्ष्मणजी हैं। रामजी के साथ वाली सीट पर सीताजी हैं। स्वर्ग में ऊपर से पुष्प-वर्षा करते देवतागण हैं। पर रामजी के दरबार-दफ्तर में मैंने कोई बाबू नहीं देखा।
मैंने बाबा पोंगा शास्त्री उर्फ बापोंशा से यही निवेदन किया-सरजी राम के दरबार में एक भी बाबू नहीं, फिर ये राम बाबू का कंसेप्ट कहां से आया होगा।
यही तो पेंच है बेट्टा, अगर रामजी के दरबार, दफ्तर में बाबू हुए होते, तो कोई बवाल नहीं हुआ होता। सीता हरण का तो सवाल ही नहीं हुआ होता। लंका में युद्ध का धमाल न हुआ होता।
रामजी के यहां बाबुओं की उपस्थिति का इन प्रकरणों से क्या संबंध है, सो कहें-मैंने आग्रह किया।
देख, अगर रामजी के यहां बाबू लोग होते, तो तो राम गमन की फाइल को बाबू लोग ऐसे डील करते कि पहले फाइल पर सबसे दशरथ की टिप्पणी होती, फिर गुरु वशिष्ठ की विशेष टिप्पणी के लिए फाइल भेजी जाती। फिर गुरु वशिष्ठ के दफ्तर से बाबू स्पेशल रेफरेंस के लिए महर्षि जमदग्नि, महर्षि कर्णव, महर्षि पिप्पलाद, महर्षि याज्ञ्यवल्क्य, महर्षि गर्ग, महर्षि शांडिल्य, महर्षि दुर्वासा, के पास थ्रू प्रापर चैनल भिजवाते।
थ्रू प्रापर चैनल का मतलब कि राम के वन-गमन की फाइल गुरु वशिष्ठ के आफिस के सेक्रेट्री, स्पेशल सेक्रेट्री, डिप्टी सेक्रेट्री, जाइंट सेक्रेट्री, अंडर सेक्रेट्री, डाइरेक्टर, डिप्टी डाइरेक्टर, अंडर डाइरेक्टर, सेक्शन अफसर, बड़े बाबू और राम बाबूजी के पास से होते हुई इन सारे ऋषियों के दफ्तर में इन सारे अफसरों के पास पहुंचती।
ऋषियों के दफ्तर में इन अफसरों के थ्रू होते हुए फाइलें जब तक वापस रामजी के दरबार में पहुंच पातीं, तब तक पचास-साठ साल निकल गये होते। नो क्वश्चन आफ वन गमन-बाबा पोंगा शास्त्री बता रहे हैं।
पर सीताहरण तो रावण अयोध्या में आ कर सकता था-मैंने अपनी शंका व्यक्त की।
अच्छा तू बता, छह महीनों से ड्राइविंग लाइसेंस के दफ्तर में चक्कर काट रहा है, राम बाबू के रहते तू क्या एक पिद्दी से लाइसेंस का हरण कर पाया है-पोंगा शास्त्री पूछ रहे हैं।
नहीं।
तो बता राम बाबू के रहते अगर रावण अयोध्या में आता, राम दरबार में एंट्री भर के लिए राम बाबू रावण से पचास एप्लीकेशन फार्म भरवाते और परमीशन के लिए छह महीने तक इतने चक्कर लगवाते कि रावण राम बाबू के दफ्तर के बाहर खड़ा-खड़ा ही टें बोल जाता और तब राम को मारने का क्रेडिट राम के खाते में नहीं, राम बाबू के खाते में आता। राम के बाबुओं के ऐसे महत्व को देखकर ही ऋषि मर्णव ने भविष्यवाणी की थी कि कलियुग में राम बाबू नाम बहुत पापुलर होगा-पोंगा शास्त्री बता रहे हैं।
अब मुझे पक्के तौर पर राम के साथ-साथ राम बाबू का महत्व भी समझ में आ गया है।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Monday, July 16, 2007

आई लव यू,, माननीय मुख्यमंत्री के नेतृ्त्व में

आई लव यू, माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में

आलोक पुराणिक

सावन के अंधे को हरा ही हरा ही सूझता है-जिसने भी यह कहावत गढ़ी है, वह कभी किसी जसंपर्क अधिकारियों से न मिला होगा वरना कहावत रिवाइज कर देता –बात एक ही अकलवाली, जनसंपर्की को परमानेंट हरियाली।

कुछ दिनों पहले एक राज्य सरकार के बहुत सीनियर जनसंपर्क अधिकारी बता रहे थे कि उनके मुख्यमंत्री के शासन में इत्ता ला, इत्ता आर्डर। इतनी बारिश, इतना गेहूं। पर पब्लिक ने नहीं सुनी, चुनाव में सरकार बदल गयी। अब वो जनसंपर्की बता रहे हैं कि नये शासन में इत्ता ला, इत्ता आर्डर। नये शासन में इत्ती लू कम, इत्ती ज्यादा बारिश। साहब, कलेजा चाहिए, इतनी स्पीड से बारिश का क्रेडिट उन वाले मुख्यमंत्री के खाते से ट्रांसफर करके नये शासन के खाते में डालने के लिए। पर जनसंपर्की बगैर हिचक के करता है।

पहले उसका हरा, अब इसका हरा।

एक सीनियर जनसंपर्की से और साबका पड़ा, उसके बेटे की फर्स्ट डिवीजन की बधाई देने गया, तो वह बोल उठा-माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य प्रगति कर रहा है। उसमें मेरे बेटे की फर्स्ट डिवीजन आयी है। यह सब माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में हो रहा है। शासन की दूरदर्शितापूर्ण नीतियों के परिणाम स्वरुप हो रहा है।

मैंने कहा –और ये जो बिजली कई हफ्ते फरार रहती है। यह सब भी माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में ही रहा है। शासन की दूरदर्शिता के परिणाम स्वरुप हो रहा है। सारा शासन दूर ही देखता रहता है। मौका देखकर दूर कहीं जर्मन, फ्रांस निकल लेता है गर्मियों में।

जनसंपर्की खून में मिल जाये, तो बहुत डेंजरस मामला हो जाता है।

मैं कल्पना करता हूं कि तमाम राज्य सरकारों के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी पत्नी से अंतरंग वार्तालाप में भी कुछ यूं कहते होंगे-माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य चतुर्दिक प्रगति कर रहा है। नागरिक सुख-शांति से है। ऐसे शांतिपूर्ण माहौल में ही मैं तुमसे कह पा रहा हूं कि तुम कितनी सुंदर लग रही हो, माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में। आई लव यू रीयली, माननीय मुख्यमंत्री के नेतृत्व में।

अपनी यह कल्पना मैंने एक सीनियर जनसंपर्की को बतायी।

जनसंपर्की हें हें करने लगा। दांत दिखाने लगा।

हें हें, दांत दिखाने का जनसंपर्क में भारी योगदान होता है। राज्य सरकारों की तमाम उपलब्धियों के जो इश्तिहार छपते हैं, उनमें मुख्यमंत्री, मंत्री भी हें हें –दांत दिखाऊ मुद्राओं में होते हैं।

अभी बुश का फोन था-पूछ रहे थे कि इराक में बहुत थू-थू हो रही है, कुछ करवाओ।

मैंने कहा कि इंडिया से कुछ जनसंपर्कियों को बुलाओ-वो इश्तिहार में बतायेंगे-इराक प्रगति कर रहा है माननीय प्रेसीडेंट के दूरदर्शितापूर्ण नेतृत्व में। जो इराकी बिजली, पानी, दवाई के अभाव में दो-तीन साल में टें बोलते, वो बम धमाकों में एक दिन में निपटकर कष्टों से निजात पा जाते हैं, माननीय प्रेसीडेंट के नेतृत्व में।

बुश बोले-पर मेरे साथ काम करने वालों को बहुत झूठा होना चाहिए।

मैंने बता दिया है कि हमारे जनसंपर्की आपसे बहुत आगे हैं।

बुश तैयार हो गये हैं। चलूं कामर्स मिनिस्ट्री को बता आऊं कि भारत से जनसंपर्की झूठ की आउटसोर्सिंग की विकट संभावनाएं हैं।

आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

Sunday, July 15, 2007

संडे सूक्तियां-कास्ट इफेक्टिव और स्मार्ट झूठ ऐसे बोलें

संडे सूक्तियां- कास्ट इफेक्टिव और स्मार्ट झूठ ऐसे बोलें

आलोक पुराणिक

व्यक्तित्व विकास व्याख्यानमाला सीरिज के तहत इस लेखक द्वारा दिया गया यह व्याख्यान बहुतै हिट रहा है। इस व्याख्यान की मांग विभिन्न वर्गों द्वारा की जा रही है। पाठकों के हितार्थ इसके चुनिंदा संपादित अंश पेश हैं-

कतिपय प्राचीन कहावतों में सत्य और झूठ के बारे में अनर्गल बातें कही गयी हैं। जिनसे कई बार भोली-भाली जनता परेशान हो जाती है। कहावत है कि झूठ के पांव नहीं होते। इस कहावत का भावार्थ बिलकुल गलतरीके से किया जाता है। इस कहावत का आशय यह है कि झूठ को पांवों को यानी पैदल चलने की जरुरत नहीं पड़ती। झूठ के निपुण प्रेक्टिशनर हमेशा कार, हैलीकाप्टर पर चलते हैं। सत्य वालों की पैदल चलना पड़ता है।

प्राचीन ग्रंथों के गहन अध्ययनों से ही सच और झूठ के संबंध में असली बातों का पता लग सकता है। राम और कृष्ण में से पूर्णावतार किसे माना जा सकता है। श्रीकृष्ण को। क्यों उनके बचपन का रिकार्ड देखकर यह ज्ञात किया जा सकता है-वे सरे आम खुले आम धड़ाके से झूठ बोलते थे। मक्खन उड़ाने के बाद मुंह पर लगे उसके अंशों के संबंध में बयान देते थे-ग्वाल बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुंह लपटायो। इस अदा पर उन्हे और मक्खन दिया जाता था। यानी झूठ बोलने पर उन्हे आधिकारिक रिटर्न दिया जाता था। माखनचोर कोई अपमानजनक नाम नहीं है। बड़े-बड़े भक्तों, ज्ञानियों में यह नाम सम्मान लिया जाता है। इससे साफ होता है कि अगर बंदा कायदे से झूठ बोले तो चोरी जैसी विधा को पर्याप्त सम्मान मिल जाता है

राम को पूर्णावतार का दर्जा इसलिए मिल पाया कि झूठ बोलने में उन्होने वैसा हुनर नहीं दिखाया जैसा श्रीकृष्ण के पास था। झूठ और फरेब पर शोध करने वालों ने बताया है कि अगर राम की जगह श्रीकृष्ण की पत्नी को रावण उड़ाकर ले जाता, तो श्रीकृष्ण पुल बांधकर फौज को उस पार सत्य की लड़ाई लड़ने कदापि नहीं जाते। वो भुवनमोहिनी का रुप धारण करते, नाचते हुए रावण को रिझाकर अपने पीछे ले आते। जैसे ही मौका पाते, रावण का सर कलम कर देते। सेना निर्माण, पुलादि की लागत का बवाल भी निपट जाता। इससे यह भी साफ होता है कि सत्य के रास्ते पर चलने के लिए बहुत टीम-टाम चाहिए होते हैं। पर झूठ तो कास्ट इफेक्टिव तरीके से अपने परिणाम दे देता है।

इसलिए हमें पूर्णावतार के रास्ते पर चलना चाहिए।

हां, झूठ बोलने की कुछ माडर्न तकनीकों से खुद को समय-समय पर परिचित कराते रहना चाहिए। जैसे लेखकों को साहित्य में झूठ की नयी प्रवृत्तियों से खुद को अप टू डेट रखना चाहिए। जैसे लेखकों को साहत्य में झूठ की प्रवृत्तियों से खुद को अप टू डेट रखना चाहिए। साहित्यकारों को इस तरह के झूठ कदापि नहीं बोलने चाहिए कि उनकी फलां पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी में हुआ है। यह तो पकड़ में आ जाता है। यूं बोलना चाहिए –फिरांस्का के महत्वपूर्ण रचनाकार झोमारा कारावाऊ ने उनकी कृतियों का अनुवाद अपनी भाषा में किया है-ताऊकूंचा वैंटीला नाम से।

साहित्यकार कभी नहीं पूछेंगे कि यह किस देश की भाषा है।

वो पूछेंगे तो इत्ता कि गुरु सैटिंग कैसे की।

सैटिंग न बताना आपका साहित्यसिद्धाधिकार है।

से नये-नये देश और नये-नये रचनाकार आप अपनी सुविधा से ईजाद कर सकते हैं।

जैसा कि एक विदेशी विद्वान ने कहा कि झूठ हमेशा आंकड़ों के साथ बोलना चाहिए। अगर यह बताया जाये कि हाथी उड़ रहे हैं, तो लोग नहीं मानेंगे। इसे ऐसे कहा जाना चाहिए कि पृथ्वी के उस हिस्से पर, जहां रेखांश 78 डिग्री है और अक्षांश 89 डिग्री है, वहां 24 सितंबर को सुबह पांच बजकर छह मिनट पर सात हाथी उड़ते देखे गये(कंडीशंस अप्लाई)। हर झूठ के साथ कंडीशंस अप्लाई वाला क्लाज जरुर फिट करना चाहिए। हर झूठ(विज्ञापनों समेत) के साथ इसे अटैच किया जाता है।

कतिपय विद्वानों का मानना है कि दशमलव का आविष्कार ही इसलिए किया गया था कि झूठ बोलने में सुभीता रहे। आंकड़ों में दशमलव लगाकर पेश किया जाये, तो विश्वसनीयता में भारी इजाफा हो जाता है। इस बात का उदाहरण बाटा शू कंपनी द्वारा बतायी जाने वाली कीमतें हैं। क्या वे कीमतें 95 रुपये नहीं बता सकते, नहीं वे बताते हैं 94 रुपये 95 पैसे। फुटपाथ पर जूते बेचने वाला जब बताता है -90 रुपये, तो पब्लिक झिकझिक करती है। पर बाटा के यहां झिकझिक नहीं करती, दशमलव का झूठ बोलने में इस्तेमाल करने से झूठ को कई सारे चांद लग जाते हैं।

उम्र के मामले में अपने बयानों को विश्वसनीय बनाने के लिए सुंदरियों को बताना चाहिए कि मेरी उम्र 20 साल 2 माह और सोलह दिन है। झूठ में महीनों और दिनों के स्पेसिफिकेशसे विश्वनीयता बढ़ जाती है।

अब चलूं मंगल ग्रह पर झूठ पर व्याख्यान देने जाना है। मंगल प्लस टीवी चैनल पर 87.098 हर्ट्ज फ्रिक्वेंसी में इसका सीधा प्रसारण होगा।

इस चैनल को आपका टीवी कैच करता है या नहीं।

आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799