Wednesday, August 29, 2007

अब नये खोमचे www.alokpuranik.com पर

इस ब्लाग के पाठक अब www.alokpuranik.com पर जायें।
अब व्यंग्य की दुकान वहीं सजाने की तैयारी हो रही है।
मैथिलीजी (ब्लागवाणी वाले) और उनके पुत्र सीरिल ने इस खाकसार को वर्डप्रेस के कई गुर बताते हुए इस नये खोमचे को सैट किया है। तकनीकी बाधाएं कई तरह की थीं। कई तरह के बवाल और सवाल आये।
लगातार बार एक समस्या यह आ रही थी कि जो थीम सैट की जाती थी, वह अपने आप बदल जाती थी। जीतू भाई, काकेशजी ने सबने तरह-तरह की सलाह-मदद आफर की। पर पिराबलम साल्व नहीं हुई। वही होता रहा, जो थीम सैट करो, सुबह तक बदल जाती थी।
मैथिलीजी कई बार परेशान हुए। बोले-बीसियों वैबसाइट बना लीं, पर ऐसी बेगैरत, बेहया वैबसाइट नहीं देखी, जो कुत्ते की दुम तरह टेढ़ी की की टेढ़ी हो जाती है। मैंने बताया कि मेरी सोहबत का असर है। एक दिन शायद कुछ बहुत ठोंक-पीट हुई है, तो शायद यह अब ठीक काम करे।
अब ठीक काम करे, इसी उम्मीद पर खोमचा शिफ्ट हो रहा है।
मैथिलीजी और उनके पुत्र सिरिल को अभी फाइनल वाला धन्यवाद देना निरर्थक यूं है, कि अभी उनका पीछा छोड़ा नहीं है मैंने। दरअसल यह सब किया -धरा उन्ही का है। तरह-तरह के बवाल , सवाल उनके सामने रोज रख रहा हूं। और वे पूरे धैर्य से उनके जवाब तलाश रहे हैं।(मैथिलीजी के दफ्तर में परम धांसू पेस्ट्री और चाय के साथ तरह-तरह के बवाल-सवाल निपटाये जाते हैं, ब्लागर बंधु इसे नोट कर लें)
एक बात और, मैंने शनिवार और रविवार को मैंने नोट किया कि लोग शायद ज्यादा पढ़ने के मूड में नहीं रहते और खास तौर पर रविवार को तो बहुत कम लोग ब्लाग पढ़ने आते हैं। लोगों की इच्छा का सम्मान करते हुए नया खोमचा संडे को बंद टाइप रहेगा। मतलब संडे को पोस्ट अपडेट नहीं होगी। बाकी छह दिन मंडे टू सेटर्ड सुबह छह बजे तक अपना शटर खुल जायेगा, अगर टेकनीकल पेंच नहीं रहे तो। इस वैबसाइट में जो भी कुछ अच्छा लगे, उसके लिए धन्यवाद, क्रेडिट मैथिलीजी और उनके पुत्र सिरिल को प्रेषित कीजियेगा।
हां जो कुछ चिरकुटात्मक, अगड़म-बगड़म है, उस पर मेरा और सिर्फ मेरा कापीराइट मानकर मुझे बतायें।
सादर
प्लीज नये खोमचे पर रोज आयें।

Tuesday, August 28, 2007

भगीरथ जेल में

भगीरथ जेल में

(अब तक आपने पढ़ा। भगीरथ भारतवर्ष के जल संकट से द्रवित होकर जनता को परेशानी से निजात दिलाने के लिए गंगा द्वितीय को पृथ्वी पर लाने का उपक्रम करने लगे। इसके लिए वह हरिद्वार के पास मुनि की रेती पर साधनारत हुए तो नगरपालिका वालों ने, नेताओं ने और दूसरे तत्वों ने उन्हे परेशान किया। वह परेशान होकर ऊपर पहाड़ों पर जाने लगे, तो कई फोटोग्राफरों ने उनके सामने तरह-तरह के आइटमों के माडलिंग के प्रस्ताव रखे। फोटोग्राफरों ने उनसे कहा कि इस तरह की जनसेवा के पीछे उनका जरुर बड़ा खेल है और इस खेल के साथ वे चार पैसे एक्स्ट्रा भी कमा लें, तो हर्ज नहीं है।अब आगे पढ़िये समापन किस्त में।)

देखिये, ये क्या खेल-खेल लगा रखा है। क्यां यहां बिना खेल के कुछ नहीं होता क्या-भगीरथ बहुत गुस्से में बोले।

जी बगैर खेल के यहां कुछ नहीं होता। यहां गंगा इसलिए बहती है कि वह गंगा साबुन के लिए माडलिंग कर सके। गोआ में समुद्र इसलिए बहता है कि वह गोआ टूरिज्म के इश्तिहारों में काम आ सके। हिमालय के तमाम पहाड़ इसलिए सुंदर हैं कि उन्होने उत्तरांचल टूरिज्म, उत्तर प्रदेश टूरिज्म के इश्तिहारों में माडलिंग करनी है। आपकी चाल में फुरती इसलिए ही है कि वह किसी चाय वाले या च्यवनप्राश वाले के इश्तिहार में काम आ सके। आपके बाल अभी तक काले इसलिए हैं कि वे नवरत्न तेल के इश्तिहार के काम आ सकें। हे मुनि, डाल से चूके बंदर और माडलिंग के माल से चूके बंदों के पास सिवाय पछतावे के कुछ नहीं होता-एक समझदार से फोटोग्राफर ने उन्हे समझाया।

भगीरथ मुनि गु्स्से में और ऊंचे पहाड़ों की ओर चले गये।

कई बरसों तक साधना चली।

मां गंगा द्वितीय प्रसन्न हुईं और एक पहाड़ को फोड़कर भगीरथ के सामने प्रकट हुईं।

जिस पहाड़ को फोड़कर गंगा प्रकट हुई थीं, वहां का सीन बदल गया था। बहुत सुंदर नदी के रुप में बहने की तैयारी गंगा मां कर ही रही थीं कि वहां करीब के एक फार्महाऊस वाले के निगाह पूरे मामले पर पड़ गयी।

वह फार्महाऊस पानी बेचने वाली एक कंपनी का था।

गंगा द्वितीय जिस कंपनी के फार्महाऊस के पास से निकल रही हैं, उसी कंपनी का हक गंगा पर बनता है, ऐसा विचार करके उस कंपनी का बंदा भगीरथ के पास आया और बोला कि गंगा पर उसकी कंपनी की मोनोपोली होगी। वही कंपनी गंगा का पानी बेचेगी।

तब तक बाकी पानी कंपनियों को खबर हो चुकी थी।

बिसलेरी, खेंचलेरी, खालेरी, पालेरी, पचालेरी, फिनफिन, शिनशिन,छीनछीन समेत सारी अगड़म-बगड़म कंपनियों के बंदे मौके पर पहुंच लिये।

हर कंपनी वाला भगीरथ को समझा रहा था कि वह उसी की कंपनी को ज्वाइन कर ले। मुंहमांगी रकम दी जायेगी। गंगा द्वितीय उस कंपनी की संपत्ति हो जायेगी और भगीरथ को रायल्टी दे दी जायेगी।

पर भगीरथ नहीं माने। वह गंगा द्वितीय को जनता को समर्पित करना चाहते थे।

किसी कंपनी वाले की दाल नहीं गली।

पर..........।

सारी कंपनियों के बंदों ने आपस में खुसुर-पुसर की। खुसर-पुसर का दायरा बढ़ा, नगरपालिकाओं वाले आ गये। माहौल और खुसरपुसरित हुआ-भगीरथी की फ्यूचर पापुलरिटी की सोचकर आतंकित-परेशान नेता भी आ लिये। वाटर रिस्टोरेशन के लिए काम कर रहे एनजीओ के बंदे भी इस खुसर-पुसर में शामिल हुए।

फिर ...........भगीरथ गिरफ्तार कर लिये गये।

उन पर निम्नलिखित आरोप लगाये गये-

1- शासन की अनुमति लिये बगैर भगीरथ ने साधना की। इससे कानून व्यवस्था जितनी भी थी, उसे खतरा हो सकता था।

2- इस इलाके को पहले सूखा क्षेत्र माना गया था। अब यहां पानी आने से कैलकुलेशन गड़बड़ा गये। पहले इसे सूखा क्षेत्र मानते हुए यहां तर किस्म की ग्रांट-सब्सिडी की व्यवस्था की गयी थी योजना में। अब दरअसल पूरी योजना ही गड़बड़ा गयी। यह सिर्फ भगीरथ की वजह से हुआ। योजना प्रक्रिया को संकट में डालने का अपराध देशद्रोह के अपराध से कम नहीं है।

3- भगीरथ ने विदेशों से आ रही मदद, रकम में बाधा पैदा करके राष्ट्र को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा से वंचित किया है। इस क्षेत्र के जल संकट को निपटाने के लिए फ्रांस के एनजीओ फाऊं-फाऊं फाउंडेशन और कनाडा के एनजीओ खाऊं-खाऊं ट्रस्ट ने लोकल एनजीओज (संयोगवश जिनकी संचालिकाएं स्थानीय ब्यूरोक्रेट्स की पत्नियां थीं) को कई अरब डालर देने का प्रस्ताव दिया था। अब जल आ गया, तो इन एनजीओज को संकट हो गया। फ्रांस और कनाडा के एनजीओज ने सहायता कैंसल कर दी। इस तरह से भगीरथ ने गंगा द्वितीय को बहाकर विदेशी मदद को अवरुद्ध कर दिया। भारत को विदेशी मुद्रा से वंचित करना देशद्रोह के अपराध से कम नहीं है।

4- पहाड़ को फोड़कर गंगा द्वितीय जिस तरह से प्रकट हुई हैं, उससे इस क्षेत्र का नक्शा बदल गया है, जो हरिद्वार नगर पालिका या किसी और नगर पालिका ने पास नहीं किया है।

5- शासन की सम्यक संस्तुति के बगैर जिस तरह से नदी निकली है, वह हो न हो, किसी दुश्मन की साजिश भी हो सकती है।

गिरफ्तार भगीरथ जेल में चले गये, उनको केस लड़ने के लिए कोई वकील नहीं मिला, क्योंकि सारे वकील पानी कंपनियों ने सैट कर लिये थे।

लेटेस्ट खबर यह है कि गंगा निकालना तो दूर अब भगीरथ खुद को जेल से निकालने का जुगाड़ नहीं खोज पा रहे हैं।

आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Monday, August 27, 2007

भगीरथजी मुनि की रेती पर उर्फ भगीरथ -गंगा नवकथा

भगीरथजी मुनि के रेती पर उर्फ भगीरथ गंगा नवकथा

आलोक पुराणिक

गंगा को जमीन पर लाने वाले अजर-अमर महर्षि भगीरथजी स्वर्ग में लंबी साधना के बाद जब चैतन्य हुए, तो उन्होने पाया कि भारतभूमि पर पब्लिक पानी की समस्या से त्रस्त है। समूचा भारत पानी के झंझट से ग्रस्त है। सो महर्षि ने दोबारा गंगा द्वितीय को लाने की सोची। महर्षि भारत भूमि पर पधारे और मुनि की रेती, हरिद्वार पर दोबारा साधनारत हो गये।

मुनि की रेती पर एक मुनि को भगीरथ को साधना करते देख पब्लिक में जिज्ञासा भाव जाग्रत हुआ।

छुटभैये नेता बोले कि गुरु हो न हो, जमीन पक्की कर रहा है। ये अगला चुनाव यहीं से लड़ेगा। यहां से एक और कैंडीडेट और बढ़ेगा। बवाल होगा, पुराने नेताओं की नेतागिरी पर सवाल होगा।

पुलिस वालों की भगीरथ साधना कुछ यूं लगी-हो न हो, यह कोई चालू महंत है। जरुर साधना के लपेटे में मुनि की रेती को लपेटने का इच्छुक संत है। तपस्या की आड़ में कब्जा करना चाहता है।

खबरिया टीवी चैनलों को लगा है कि सिर्फ मुनि हैं, तो अभी फोटोजेनिक खबरें नहीं बनेंगी। फोटोजेनिक खबरें तब बनेंगी, जब मुनि की तपस्या तुड़वाने के लिए कोई फोटोजेनिक अप्सरा आयेगी। टीआरपी साधना में नहीं, अप्सराओं में निहित होती है। टीवी पर खबर को फोटूजेनिक होना मांगता।

नगरपालिका वालों ने एक दिन जाकर कहा-मुनिवर साधना करने की परमीशन ली है आपने क्या।

भगीरथ ने कहा-साधना के लिए परमीशन कैसी।

नगरपालिका वालों ने कहा-महाराज परमीशन का यही हिसाब-किताब है। आप जो कुछ करेंगे, उसके लिए परमीशन की जरुरत होगी। थोड़े दिनों में आप पापुलर हो जायेंगे, एमपी, एमएलए वगैरह बन जायेंगे, तो फिर आप परमीशन देने वालों की कैटेगरी में आयेंगे।

भगीरथ ने कहा-मैं साधना तो जनसेवा के लिए कर रहा हूं। सांसद मंत्री थोड़े ही होना है मुझे।

जी सब शुरु में यही कहते हैं। आप भी यही कहते जाइए। पर जो हमारा हिसाब बनता है, सो हमें सरकाइये-नगरपालिका के बंदों ने साफ किया।

देखिये मैं साधु-संत आदमी हूं, मेरे पास कहां कुछ है-भगीरथ ने कहा।

महाराज अब सबसे ज्यादा जमीन और संपत्ति साधुओं के पास ही है। न आश्रम, न जमीन, न कार, न नृत्य की अठखेलियां, ना चेलियां-आप सच्ची के साधु हैं या फोकटी के गृहस्थ। हे मुनिवर, आजकल साधुओं के पास ही टाप टनाटन आइटम होते हैं। दुःख, चिंता ,विपन्नता तो अब गृहस्थों के खाते के आइटम हैं-नगरपालिका वालों ने समझाया।

भगीरथ यह सुनकर गुस्सा हो गये और हरिद्वार-ऋषिकेश से और ऊपर के पहाड़ों पर चल दिये।

भगीरथ को बहुत गति से पहाड़ों की तरफ भागता हुआ सा देख कतिपय फोटोग्राफर भगीरथ के पास आकर बोले देखिये, हम आपको जूते, च्यवनप्राश, अचार कोल्ड ड्रिंक, चाय, काफी, जूते, चप्पल जैसे किसी प्राडक्ट की माडलिंग के लिए ले सकते हैं।

पर माडलिंग क्या होती है वत्स-भगीरथ ने पूछा।

हा, हा, हा, हा हर समझदार और बड़ा आदमी इंडिया में माडलिंग के बारे में जानता है। आप नहीं जानते, तो इसका मतलब यह हुआ कि या तो आप समझदार आदमी नहीं हैं, या बडे़ आदमी नहीं हैं। एक बहुत बड़े सुपर स्टार को लगभग बुढ़ापे के आसपास पता चला कि उसकी धांसू परफारमेंस का राज नवरत्न तेल में छिपा है। एक बहुत बड़े प्लेयर को समझ में आया कि उसकी बैटिंग की वजह किसी कोल्ड ड्रिंक में घुली हुई है। आप की तेज चाल का राज हम किसी जूते या अचार को बना सकते हैं, बोलिये डील करें-फोटोग्राफरों ने कहा।

देखिये मैं जनसेवा के लिए साधना करने जा रहा हूं-भगीरथ ने गुस्से में कहा।

गुरु आपका खेल बड़ा लगता है। बड़े खेल करने वाले सारी यह भाषा बोलते हैं। चलिये थोड़ी बड़ी रकम दिलवा देंगे-एक फोटोग्राफर ने कुछ खुसफुसायमान होकर कहा।

(जारी कल भी)

आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Sunday, August 26, 2007

ज्यादा पैसे लेकर भी

ज्यादा पैसे लेकर भी

आलोक पुराणिक

से क्या कहें को-इनसिडेंट या को-एक्सीडेंट, जिस दिन शरद पवारजी वाले क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने सीनियर टीम से लेकर जूनियर क्रिकेट अगड़म -बगड़म-हर किस्म के क्रिकेट के क्रिकेटरों के लिए रकम बढ़ाने की घोषणा की, उसी दिन इंडिया डे मैच हार गयी।

अपना मानना है कि इंडिया की टीम ऐसे नहीं हारी, उसने अपने ऊपर लगे आरोप का जवाब दिया है। इंडिया की टीम पर आरोप लगता रहता है कि उसके खिलाडी सिर्फ माडलिंग, इश्तिहार पैसे के लिए खेलते हैं। जैसे पवार साहब ने पैसे बढाये, टीम ने हारकर दिखा दिया, लो हम पैसे के लिए भी नहीं खेलते। ज्यादा पैसे लेकर भी हम हार सकते हैं।

वैसे मुझे लगता है कि कपिल देव वाली क्रिकेट लीग का भविष्य एकदम चकाचक है। अगर उसके खिलाडियों को ज्यादा पैसा मिलता है, तो उनके मजे हैं ही। और अगर उसके खिलाडियों को पवार साहब के खिलाडियों से कम पैसा मिलता है, तो कपिल के खिलाडी कह सकते हैं कि हम बेहतर हैं, क्योंकि हम सस्ते में हारते हैं। सो विदेशों में हारने का पहला हक उनकी टीम का बनता है।

मुझे लगता है कि कुछ समय बाद, चार-छह क्रिकेट लीग टाइप संस्थाएं हो जायेंगी, बडी बमचक रहेगी। हर क्रिकेट संस्था वाला अपनी टीम की मार्केटिंग करेगी-रस्ते का माल सस्ते में, हम से हरवाईये, एकदम सस्ते में काम चलाईये। एक मैच हारने की फीस में दो मैच हारेंगे, एक पे एक फ्री।

दिल्ली में आजापुर सब्जी मंडी के साथ ही क्रिकेट मंडी सी हो लेगी। सुबह-सुबह खिलाडी बैट-बाल लिये आ जायेंगे। क्रिकेट के सारे आढ़तिये अपने मतलब के खिलाड़ियों को बटोर लेंगे।
इधर सीन बहुत मजेदार सा हो लिया
है।

जो मजा पहले पालिटिक्स की जूतम-लात में आता था, अब क्रिकेट की बातों में आता है।

शरद पवार कह रहे हैं कि जो खिलाडी कपिल देव की क्रिकेट लीग को ज्वाइन करेंगे, वे देश के लिए नहीं खेलेंगे। जैसे जो खिलाडी पवार साहब के पास हैं,, वे देश के लिए ही खेलते हैं या पूछें कि क्या वे हमेशा खेलते भी हैं।

खैर, पब्लिक को मालूम है, पवार साहब को नहीं, कि इंडियन क्रिकेटर आम तौर पर च्यवनप्राश, कोल्ड ड्रिंक वगैरह के लिए खेलते हैं।

सबसे ज्यादा आफत विज्ञापन बनाने वालों की होगी। पता लगा कि कोई कोल्ड ड्रिंक वाला पवारजी वाले प्लेयर को पिलाता रह गया और सेंचुरी ठोंक दी कपिलदेव वाले प्लेयर ने।

एक विज्ञापन कंपनी वाला बता रहा था जी हमने तो तैयारी यूं की है कि विज्ञापन में खिलाडियों के सिर दिखायेंगे ही नहीं। बस दौड़ते़ -भागते धड़ दिखायेंगे, फिर जिस टीम की परफारमेंस ठीक रहेगी, उसे ही अपनी टीम बता लेंगे। धड़ों पे सिर बाद में ठोंक देंगे। वैसे भी इंडियन क्रिकेट में सिर ज्यादा हो गये हैं। नेताओं के सिर, धंधेबाजों के सिर। सिर कम हों, एक्शन ज्यादा हो, तो बात बने।

मैंने कहा-इश्तिहार में खिलाडियों के सिर्फ धड़ दिखाओगे। क्रिकेट के नाम पर पब्लिक को बेवकूफ बनाओगे।

वह बुरा सा मान गया-बोला-जी और बेवकूफ बना रहे हैं, आप उन्हे नहीं कहते। सिर्फ हमें कहते हो।

बात में दम है जी। जब सभी बना रहे हैं,तो सिर्फ इश्तिहार वालों से ही क्यों कहा जाये।

आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Saturday, August 25, 2007

भूत नाग ये वाले

आलोक पुराणिक

खबर है कि शरद पवारजी ने अपनी सांसद बिटिया को सलाह दी है कि संसद में टाइम वेस्ट ना करो, जाओ इलाके में जाकर काम करो।

संसद में नेता ज्यादातर टाइम वेस्ट ही करते हैं, यह पब्लिक तो हमेशा मानती है।

पर नेता कभी-कभार ही मानते हैं। चलो शरद पवारजी मान गये।

इलाके में जाकर नेता टाइम वेस्ट करे, तो पता लग जाता है कि वहां टाइम वेस्ट करना भी आसान नहीं है। बिजली नहीं है, कि सो कर किया जा सके। पानी नहीं है कि नहाकर किया जा सके। हां दारु के ठेके हैं, पीकर किया जा सकता है। खाने का जुगाड़ हो ना हो, पर पीने का जुगाड़ जरुर हो सकता है। पिछले दस सालों में राशन की जितनी दुकानें बंद हुई हैं, उतनी दुकानों से दोगुनी दारु की दुकानें खुल गयी हैं।

पब्लिक के खाने पर सरकार का खर्च होता है, पब्लिक के पीने से सरकार कमाती है।

पब्लिक के लिए मैसेज है-खाने के काम नेताओं के लिए छोडो, पीने का काम कर लो।

खैर मसला यह है कि सरकार जा रही है। नहीं, बच रही है। मार चपर-चूंचूं मची हुई है।

वैसे मैं खुश हूं। इस घपड़चौथ में एक काम अच्छा हुआ है कि टीवी चैनलों से नाग-भूत-प्रेत कम हो गये हैं। उस बिल्डिंग में जाते हुए नाग, इस बिल्डिंग से निकलते भूत टाइप कार्यक्रम टीवी चैनलों पर कुछ कम आ रहे हैं।

उस बिल्डिंग में जाते हुए नेता, उस बिल्डिंग से निकलते हुए नेता-इस टाइप के कार्यक्रम टीवी पर ज्यादा आ रहे हैं।

वैसे टीवी के एक गहरे जानकार का मानना है कि बेसिकली हैं ये भी भूत-नाग ही। यहां से निकल कर वहां चले जाते हैं, करना-धरना इन्हे भी कुछ भी नहीं हैं, सिवाय पब्लिक को डराने के।

अभी कल मिले एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, कह रहे थे कि अमेरिका के साथ 123 का डील क्या हुआ, नौ दो ग्यारह होने की नौबत आ गयी।

मैंने कहा जी बच रहे हो, कि 123 पर नौ दो ग्यारह होने का सीन है। वरना प्याज-धनिया के भावों पर नौ दो ग्यारह होते।

नेता हंसने लगा-बोला प्याज-धनिया के भावों की चिंता हम नहीं करते। प्याज धनिया अब जो अफोर्ड कर सकते हैं, वे उस कैटेगरी के लोग हैं, जो किसी भी चीज के भाव नहीं पूछते। और जो पूछते हैं, वो धनिया और टमाटर को ज्वैलरी की तरह मानने लगे हैं, रोज यूज नहीं करते। ज्वैलरी के भावों पर सरकार आज तक नहीं गयी।

वैसे सोचिये, नेताजी गलत कह रहे हैं क्या।
आलोक पुराणिक

मोबाइल-09810018799

Friday, August 24, 2007

साहित्य साधना और पूड़ी छानना एक जैसा ही है

साहित्य साधना और पूड़ी छानना एक जैसा ही है

आलोक पुराणिक

(कल आपने पढ़ा कि किस तरह प्रख्यात पूड़ी व्यवसायी फत्तेमल कविता की तरफ बचपन से ही उन्मुख हो गये और किस तरह से उन्होने बचपन से ही पूड़ी और कविता में एक संबंध स्थापित किया, अब आगे पढ़ें)

फिर फत्तेमलजी का शादी-ब्याह हो लिया और अब वे बच्चों के स्कूल एडमीशन, बिजली के बढ़े हुए बिल, पूड़ियों को और छोटा करके मुनाफे को कैसे बड़ा किया जाये-इस किस्म चिंताओं में उलझ गये थे।

पर साहित्य प्रेम यूं ही कहां जाता है साहब।

अरे यह तो बताना रह ही गया कि फत्तेमलजी की दुकान का नाम ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला क्यों पड़ा।

हुआ यूं साहब, कि फत्तेमल के पिताजी के गांव उखर्रा से जग्गोप्रसाद जी आगरा आये और उन्होने खोला उखर्रा पूड़ी सेंटर। दुकान चल निकली, जग्गोप्रसाद जी अपनी सफलता को कुछ यूं बताते थे कि-बड़े शहरों में लेडीज लोग घर में सिर्फ कलेश करती हैं, खाने-पीने का काम बाहर करती हैं।

कलेश बढ़ता गया, पूरी का कारोबार बढ़ता गया।

जग्गोप्रसादजी के उखर्रा स्थित एक पड़ोसी ने आगरा जाकर ठीक उनकी दुकान के बगल में दुकान खोली-डबल उखर्रा पूड़ी सेंटर।

जग्गोप्रसादजी के पड़ोसी भी कालांतर में जग्गोप्रसादजी की उस स्थापना से सहमत हुए कि बड़े शहरों में लेडीज लोग घर में सिर्फ कलेश......। और फत्तेमल के पिताजी ने एक कदम आगे जाकर ट्रिपल उखर्रा पूड़ीवाला सेंटर खोला।

वह भी चल निकला। वह भी जग्गोप्रसादजी की स्थापना से सहमत हो गये।

खैर, साहब बात मैं आपको यह बता रहा था कि मुझे ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला सम्मान मिला है।

फत्तेमलजी से मेरा परिचय तब का है जब मेरे घर वालों ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया था-कुसंग के आरोप में। तब मैं भी आधुनिक कवियों की सोहबत करता था। फत्तेमलजी मुझे पूड़ी खिलाते थे और मैं उनके बही-खाते देखा करता था। फत्तेमल आश्वस्त थे कि कोई कवि टाइप आदमी खातों में घोटाला कर नहीं सकता था। इसके पीछे उनकी थ्योरी यह थी कि खातों में घोटाला करने के लिए जितनी अक्ल की जरुरत होती है, उतनी भर कवि के पास होती, तो सुसरा कवि काहे को बनता।

खैर, साहब मुझे सम्मान जिस समारोह में मिला, उसमें फत्तेमल ने अपना भाषण कुछ यूं पढ़ा-

-आलोक पुराणिक को ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला सम्मान देते हुए हमें हर्ष है कि पूड़ियों की परंपरा में उन्होने साहित्य को आगे बढ़ाया है। या कहूं कि साहित्य की परंपरा में उन्होने पूड़ियों को आगे बढ़ाया है। बल्कि मैं कहना चाहूंगा कि पूड़ी और साहित्य का जो रिश्ता रहा है, उसे एक तरह से उन्होने और पक्का किया है। एकदम ऐसा पक्का, जैसी पैकिंग हम करते हैं, पूड़ियों की, होम डिलीवरी के लिए, क्या मजाल कि एक पूड़ी बाहर आ जाये।

आलोक पुराणिक की प्रतिभा को हमने पहचान लिया था, जब इनके घरवालों ने इन्हे घर से बाहर निकाल दिया था, तब उन्हे सहारा किसने दिया, पूड़ी ने। साहित्य के इतिहास में यह बात दर्ज होनी चाहिए कि जब साहित्य लड़खड़ाया है, या साहित्यकार लड़खड़ाया है, उसे किसने सहारा दिया है पूड़ी ने। आलोक पुराणिक ने हमारी दुकान की पूड़ियां खाकर जो लिखा है, वह आपके सामने है। वैसे हमारी दुकान की पूड़ियां भी आपके सामने हैं- एकदम खस्ता, करारी, ताजी, एक बार सेवा का अवसर जरुर दें।

खैर जी मैं तो पहले ही पहचान गया था कि आलोक पुराणिक बहुत बड़े लेखक बनेंगे, तब ही जब ये हमारी दुकान पर पूड़ी खाते थे, खाते-बही संभालते थे और कभी-कभार कड़ाही से पूड़ियां छानकर निकालते भी थे। आज आलोक पुराणिक को याद हो न हो, एक दिन जब ये पूड़ियां छान रहे थे, कुछ पूड़ियां ऊपर थीं, कुछ नीचे थीं। मैंने इनसे कहा, देख लो वो नीचे वाली पूड़ी फाइनली छुन्न से एकदम ऊपर आ जायेगी। इन्होने आश्चर्यचकित होकर पूछा-आपको कैसे पता। तो मैंने बताया कि ऐसे ही थोड़े ही छान रहे हैं इतने सालों से पूड़ी। पूड़ी छानने से वह अंतर्दष्टि पैदा हो जाती है, कि बंदा यह तड़ लेता है कि कौन सी पूड़ी ऊपर आयेगी और कौन सा लेखक छुन्न से ऊपर आ जायेगा। आलोकजी ने बाद में मुझसे कई बार कहा-फत्तेमलजी आप तो हिंदी साहित्य की आलोचना में आ जाओ, बहुत भला होगा। पर पूडियों ने फुरसत नहीं दी मुझे। हां कोई विश्वविद्यालय बतौर गेस्ट लेक्चरर बुलाना चाहे और पूड़ीकला और आलोचना के संबंधों पर मैं बोल सकता हूं। यहां मैं यह कहना चाहूंगा कि पूड़ी संसार का कोई भला इस कदम से भले ही न हो, पर साहित्य आलोचना का भला जरुर हो जायेगा।

आखिर लेखन है क्या, पूड़ी छानने जैसा ही काम तो है।

लेखन प्लाट जुटाता है, पूड़ीवाला आटा जमाता है। लेखक घुमाता है पाठकों को, स्टोरी को, पूड़ी वाला बेलन घुमाता है पूड़ी के आटे पर। मुझे बताया गया है लेखन तपता है कि अनुभव की आग में, पूड़ी तपती है गैस सिलेंडर की आग में। कुछ लेखक नीचे ही रह जाते हैं, कुछ पूड़ियां भी नीचे रह जाती हैं। कुछ लेखक एक झटके से उछल कर सबसे सामने आ जाते हैं, जैसे एकाध पूड़ी उछलकर कड़ाही से बाहर आ जाती है। पूड़ी छानने वाला चाहे तो किसी पूड़ी को अपने आप उठाकर ऊपर ले आता है। जैसे कोई आलोचक चाहे तो अपने गुट के राइटर को उठाकर ऊपर ले जाये। पूड़ी वाला चाहे तो किसी पूड़ी को कच्चा कह कर बाहर रख सकता है, आलोचक भी किसी राइटर को कच्चा घोषित करके एकदम बाहर घोषित कर सकता है। तो इस तरह से हमने देखा कि पूड़ी और लेखन में बहुत कुछ समानता है।

बस फर्क एक है कि पूड़ी की कुछ कीमत होती है, उसके पैसे मिल जाते हैं। पर यही बात लेखन के बारे में नहीं कही जा सकती। एक बार मैंने आलोक पुराणिक को प्यार से राय दी थी कि छोड़ो सब कुछ आओ तुम भी पूड़ी छानो, तो इन्होने बताया भाई साहब कोई फर्क नहीं है, मैं लेखन में भी यही कर रहा हूं। यानी अब सिद्ध हो जाता है कि लेखन और पूड़ी में कोई फर्क नहीं है।

खैर साहब पुरस्कार तो मिल गया है मुझे, पर एक मसला और यह है कि सत्तोमलजी कबाड़ी जी ने संदेश भिजवाया है कि वह भी मुझे सम्मानित करना चाहते हैं। पर उनकी शर्त यह है कि पूड़ी सम्मान की परंपरा में मुझे पुरस्कार भाषण में लेखन और कबाड़ में समानता स्थापित करनी होगी।

समानता है, मैं जानता हूं। पर साहब खुले आम दिन दहाड़े कैसे स्थापित करूं।

आलोक पुराणिक एफ-1 बी-39 रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011

मोबाइल-09810018799

Thursday, August 23, 2007

जो खायें ट्रिपल उखर्रा पूड़ी बुश उर्फ कविता

जो खायें ट्रिपल उखर्रा पूड़ी बुश उर्फ कविता
आलोक पुराणिक
तो साहब मिल गया इस खाकसार को ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला सम्मान। जी साहब यह बहूत धांसू साहित्यिक पुरस्कार है, इसे उखर्रा के वरिष्ठ साहित्यप्रेमी और आगरा में सफल पूड़ी की दुकान चलाने वाले फत्तेमल गुत्थी ने दिया है। गुत्थी फत्तेमलजी का तखल्लुस है, जिसके जरिये वह साहित्य की दुनिया में दखल रखते थे , वैसे थे क्या हैं।
क्यों जी आप हंस क्यों रहे हैं. फत्तेमल पूड़ी वालेजी के साहित्यप्रेम पर।
ये गलत बात है, आईएएस अफसर कवि हो लेते हैं, सब म्याऊं भाव में स्वीकार कर लेते हैं। अगला काम आयेगा।
और तो और हरिराम ट्रेफिक हवलदार को भी कईयों ने कवि घोषित कर रखा है, टाइम-बेटाइम चालान के बदले रकम नहीं वसूलता, दो-चार कवित्त सुना देता है।
और जो ये इनकम टैक्स वाले साहित्यकार हैं, उन्हे भी आप कालजयी साहित्यकार घोषित करने को तैयार हो जाते हैं, क्योंकि वो आपका माल बचाने की ताकत रखते हैं।
बस फत्तेमलजी को आप नहीं मान रहे हैं ना।
वैसे,फत्तेमलजी बचपन से साहित्य प्रेम रखते थे, पिताजी की पूड़ी की दुकान थी।
पिताजी ने कह रखा था –पूड़ी में घाटा न हो, तो एकाध ऐब बेटा पाल सकता है, सिगरेट, सिनेमा से लेकर लेखन तक।
और साहब फत्तेमल जी ने क्या रिजल्ट दिये। फत्तेमलजी की पूड़ी की दुकान पर हर हफ्ते एक नया बैनर टंगता था, जिसमें उनकी पूड़ी की शान में ऐसे कुछ कवित्त कहे जाते थे-
हो जायें खुश
जो खायें ट्रिपल उखर्रा पूड़ी बुश

किसी ने फत्तेमल से कहा कि आप इस तरह से बुश के नाम का इस्तेमाल पूड़ी बेचने में कर रहे हो, बिना उनकी परमीशन के।
इस पर फत्तेमल ने कहा कि बुश चाहें, तो फत्तेमल का नाम यूज कर सकते हैं अपना कोई आइटम बेचने में। फत्तेमल को कोई आपत्ति नहीं होगी।
एक कवित्त कुछ इस टाइप का था-
मन में बज उठेंगे धांसू ढोल
जो आप खायें ट्रिपल उखर्रा पूड़ी गोल

किसी ने कहा-ये ढोल और गोल की तुकें कुछ ठीक नहीं हैं। इस पर फत्तेमलजी ने जवाब दिया, देखो पूड़ी ठीक होने के गारंटी हम देते हैं, तुकों के ठीक होने की गारंटी नहीं।

कुछ ने कहा, फत्तेमल से कि आप आधुनिक कविता की ओर भी उन्मुख हों, सिर्फ तुक वाली कविताओं में भिड़े रहने में कोई तुक नहीं।
फिर फत्तेमल आधुनिक कविता की ओर कुछ यूं मुड़े-
पूड़ी, गोल तुम भी
और दुनिया भी गोल
गोल-गोल चक्र में घूमता धूम्र वलय
वलय से गुजरती हुई ट्रेन
ट्रेन का धुआं,
धुएं में सोचता मैं कि मैं धुआं हूं या धुआं फत्तेमल हो गया है

इस तरह की कविताओं को आधुनिक कवियों ने बहूत सराहा। बल्कि आधुनिक कवियों का गोष्ठी केंद्र बन गयी उनकी पूड़ी की दुकान। बाद में हुआ यूं कि कविगण पूड़ी भी खाने लगे। फत्तेमल के पिताजी को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। पर और बाद में यूं हुआ कि कविगण पूड़ी उधार खाने लगे।
यह बात फत्तेमल के पिताजी को नागवार गुजरी और उन्होने आधुनिक कविता को खारिज कर दिया। इस तरह से फत्तेमल के पिताजी उन आलोचकों की श्रेणी में खड़े हो गये, जिन्होने आधुनिक कविता को मान्यता देने से इनकार कर दिया था।
(जारी रहेगा कल भी )
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Wednesday, August 22, 2007

कामरेड के किस्से

कामरेड के किस्से

किस्सा नंबर एक-शादी और प्यार
कामरेड नाराज थे, नान-कामरेड साथी को बोल दिया-अब हनीमून खत्म।
नान-कामरेड साथी का जवाब था-हू केयर्स, गेट लौस्ट।
कामरेड को इस जवाब की उम्मीद ना थी। कामरेड ने फिर वही किया, जो वह 77797979797 बार कर चुके थे।
कामरेड बोले-सो व्हाट, हनीमून खत्म होने से शादी तो खत्म नहीं होती। हम साथ रह सकते हैं। चलो चार-पांच महीने साथ रह सकते हैं। पर मैं अपने स्टैंड पर कायम हूं। हनीमून खत्म।
फिर कामरेड ने एक दिन फील किया कि पीछे से उन्हे एक जोरदार लात पड़ी है। शायद नान कामरेड साथी ने दी है ,जमा कर।
कामरेड नाराज हुए और बोले-मैं नाराज हूं। हनीमून खत्म।
नान कामरेड साथी ने कहा-अबे चिरकुट, हनीमून खत्म होने की बात तू सुबह से सातवीं बार बोल रहा है। कितनी बार हनीमून खत्म करेगा।
कामरेड ने कुछ कैलकुलेट करते हुए कहा-नहीं इस बार पक्का।
नान-कामरेड साथी ने मौज लेते हुए कहा-कामरेड हनीमून आप खत्म करने की बात कैसे कर सकते हो। आप तो बाहर से सपोर्ट देते रहे हो। कोई बाहर से ही हनीमून के लेवल पर कैसे पहुंच सकता है। अगर आप हनीमून की बात कर रहे हो, तो कबूल करो कि अंदर ही थे, और हनीमूनिंग कर रहे थे। पब्लिक को बताते रहे कि क्रांति कर रहे हैं, पर सच में हनीमून कर रहे थे।
कामरेड परेशान हो गये। पब्लिक जवाब मांगने लगी-कामरेड जब तुम बाहर थे, तो हनीमून कैसे कर रहे थे। इसका मतलब तुम बाहर दिखते थे, पर अंदर थे।
कामरेड परेशान हैं-हनीमून की बात मानें, तो अंदर साबित हो जायेंगे।
हनीमून की बात ना मानें, तो कैरेक्टर पर सवाल उठेंगे कि बाहर से कोई हनीमूनिंग कैसे कर सकता है।
कामरेड परेशान हैं, कैरेक्टर पर सवाल उठ रहे हैं।
आप बतायें कि कामरेड क्या करें।


खौं खौं हें हें
कामरेड परेशान हैं, आज कुछ बैलेंस खराब हो गया।
तय यह हुआ था कि नान कामरेड के सामने दिन में पचास बार हें हें करेंगे और पच्चीस बार खौं खौं करना है।
इस पर हें हें, उस पर खौं खौं।
बल्कि यह तक तय हो गया, कि खौं खौं हें हें हो पहले हो जायेगी। यह किसलिए हुई है, यह तय बाद में कर लेंगे।
रोज कामरेड नियम से इत्ती यूनिट हें हें और उत्ती यूनिट खौं खौं भिजवाते रहे।
रिसीव करने वाले उसे रद्दी की टोकरी में डालते रहे।
एक दिन कामरेड ने खौं खौं कुछ ज्यादा की।
जैसा कि होता था कि वह भी रद्दी में चली गयी।
कामरेड गुस्सा थे-इस बार मैं सीरियस हूं।
ओह, तो अब तक आप नान सीरियस थे क्या-नान कामरेड साथी ने पूछा।
नहीं इस बार सच्ची की खौं-खौं-कामरेड गुस्सा थे।
पर क्यों-नान कामरेड साथी ने पूछा।
कामरेड बोले-तुम्हारा चाल -चलन खराब है, अमेरिका से तुम्हारे रिश्ते हैं।
नान-कामरेड ने कहा-वो तुम्हे पहले क्यों नहीं दिखे। चाल- चलन तो हमारा हमेशा से ऐसा है। कामरेड बोले-जितना जब देखना अफोर्ड कर सकते हैं, उतना ही तो देखेंगे। अब तुम्हारी बदचलनी दिख रही है।
नान कामरेड साथी बोले-बदचलनी क्या है, इससे हमें क्या नुकसान हैं। इसकी स्टडी करने के लिए हम एक कमेटी बना देते हैं। जो रिपोर्ट दे देगी। बाद में देख लेंगे।
कामरेड जैसा कि अकसर होता है, इस बार भी राजी हो गये हैं।
पब्लिक मौज ले रही है कि कामरेड इत्ते भोले हैं कि बदचलनी अब तक देख ही ना पाये। कामरेड सचमुच बहुत भोले हैं।
खैर, कामरेड आदत के मुताबिक फिर खौं खौं कर रहे हैं, पब्लिक उसे हें हें समझकर हंस रही है।
कामरेड ने एक दिन आईने में देखा, तो डर गये। वह खुद को शेर समझकर दहाड़ते थे, पर उन्होने देखा कि जिसे वह दहाड़ समझते हैं, वह म्याऊं जैसा कुछ है।
कामरेड परेशान हैं, वह खौं खौं निकाल रहे हैं, पर हें हें ही निकल रही है।
कामरेड क्या करें, यह सोच रहे हैं।
सीनियर कामरेड ने बताया है कि कुछ ना करें, कमेटी की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करें। कुछेक दिन में कोई नया घोटाला सामने आ जायेगा। संजय दत्त को मिली जमानत में पेंच हो जायेंगे। पब्लिक का ध्यान हट जायेगा। फिर आप खौं खौं करे, या म्याऊं, कोई फर्क नहीं पड़ता।
सो कामरेड अब प्रतीक्षा कर रहे हैं।

कामरेड के कनफ्यूजन
कामरेड से पूछा किसी ने-कामरेड, इस न्यूक्लियर डील के रुक जाने से पाकिस्तान खुश होगा। भाजपा वाले खुश होंगे, चीन वाले खुश होंगे और आप खुश होंगे। तो बताइए कि आपको पाकिस्तान के साथ माना जाये या भाजपा के साथ।
कामरेड ने थोड़ा कैलकुलेट करके बताया-देखिये भाजपा के साथ नहीं हैं हम। भाजपा वाले अलग हल्ला मचायेंगे, हम अलग। भाजपा वाले अगर हो हो करेंगे, तो हम हाय हाय करेंगे। मतलब वैसे हम भाजपा के साथ खड़े दिखते हैं, वैसे हम पाकिस्तान के साथ खड़े भी दिख सकते हैं, पर वैसे तो हम कांग्रेस के साथ भी खड़े दिखते हैं। मतलब हम कांग्रेस को बाहर से सपोर्ट देते हैं। मतलब यूं तो चीन को भी हम यहां बाहर से ही सपोर्ट देते हैं। मतलब हम किसके साथ हैं, यह अभी क्लियर नहीं है।
कामरेड अभी कनफ्यूज्ड हैं कि वह कहां है। आपको पता लग जाये,तो उन्हे बता दीजिये प्लीज।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799

Tuesday, August 21, 2007

टेस्ट पोस्ट

भईया टेस्ट पोस्ट है। काहे क्लिक करते हैं।

चांऊग शी कांऊ जूं चीं चीं

चांऊग शी कांऊ जूं चीं चीं
आलोक पुराणिक
स्वतंत्रता दिवस बीत चुका था। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा-टाइप देशभक्ति कैसेट फिर से स्टोर में चले जाने चाहिए थे, कायदे से। पर नहीं ऐसा नहीं हुआ।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा- एक गोरा बंदा गाना टाइप गा रहा था।
मैंने कहा भईया अच्छा है हिंदोस्तां, पर तू क्यों गा रहा है। यह तो हमें गाना चाहिए। पर फिलहाल गाने में असमर्थ हैं-क्योंकि पानी नहीं आया है तीन दिनों से, सो नहा नहीं पाये हैं। और सो नहीं पाये हैं, क्योंकि बिजली नहीं है सात दिनों से। पूरे मुहल्ले का बिजली-तार चोरी हो गया है, बिजली अफसरों के नेतृत्व में। इसके बावजूद हिंदोस्तां हमारा बहूत अच्छा है,क्योंकि होने को तो यह पाकिस्तान या बंगलादेश या श्रीलंका भी हो सकता था या युगांडा या सोमालिया भी-मैंने एक साथ सवाल, स्पष्टीकरण गोरे के सामने रखा।
गोरे ने बताया कि वह नोकिया मोबाइल कंपनी का मार्केटिंग मैनेजर है, जित्ते हैंडसेट उसकी कंपनी इंडिया में बेच चुकी है, उतनी तो उसके देश की कुल पापुलेशन भी नहीं है।
गोरे की बात में दम है। जिन देशों में पापुलेशन कंट्रोल हो गया, वहां मोबाइल की सेल डाऊन हो गयी।
थैंक्स टू इंडियन्स-जितनी आबादी दिल्ली के आठ-दस मुहल्लों की मिलाकर है, उतनी आबादी एक पूरे देश की है-फिनलैंड की, करीब पैंतालीस लाख, नोकिया कंपनी का देश।
पापुलेशन कंट्रोल हो गयी होती. तो फिर इस कंपनी के लिए भारत सारे जहां से अच्छा नहीं रहता।
पापुलेशन कंट्रोल नहीं हुई, सो सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हो लिया।
चांऊग शी कांऊ जूं चीं चीं –एक चीनी टाइप बंदा कह रहा है।
इसका मतलब है –सारे जहां से अच्छा से हिंदोस्तां हमारा-चीनी बंदा लक्ष्मी-गणेश का मार्केटिंग मैनेजर है, उन वाली गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों का, जो चीन से इंडिया लायी गयी हैं, दीवाली पर बेचने के लिए।
पर ये माल इंडिया आ कैसे गया-मैं चीनी से पूछ रहा हूं।
पुलिस, स्मगलर कोआपरेशन से-वह बता रहा है।
इंडिया में पब्लिक भले ही शिकायत कर ले कि पुलिस सहयोग नहीं करती, पर स्मगलर कभी शिकायत नहीं करते कि पुलिस का कोआपरेशन नहीं मिलता।
अगर पुलिस कोआपरेटिव नहीं होती, तो बताइए कि क्या चीनियों के लिए हो सकता था-सारे जहां से हिदोस्तां हमारा।
नहीं ना।
इधऱ मैं सोच रहा हूं कि फिनलैंड, चीन वालों के जितना अच्छा है हिंदोस्तान, उतना हमारे लिए क्यों नहीं हो पाता।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

Monday, August 20, 2007

ईयर-फोन का सामाजिक और राजनीतिक योगदान

ईयर फोन का सामाजिक और राजनीतिक योगदान

आलोक पुराणिक

आविष्कार इसे ही कहते हैं साहब।

ईयर फोन का आविष्कार जिसने किया हो, किया हो। पर ईयर फोन के सामाजिक राजनीतिक योगदान पर शोध इस खाकसार ने की है।

एक कार्डलैस ईयर फोन में लगाये हुए मैं एमपी थ्री प्लेयर सुन रहा था।

ईयर फोन और एमपी थ्री प्लेयर इधर नेताओं के ईमान के माफिक हो चले हैं, हर नया एडीशन पुराने के मुकाबले सिकुड़ा हुआ मिलता है।

बल्कि अब तो लेवल गायब होने के लेवल पर आ लिया है, सो साहब, कार्डलैस ईयर फोन और एमपी थ्री प्लेयर गायब से थे, दिख ही नहीं रहे थे।

पत्नी सामने आयी -कुछ कहा।

मुझे ईयर फोन में वही गीत सुनायी दिया -तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया- साथ होगा।

पत्नी ने बाद में बताया कि उसने असल में कहा था-जाने किस बुरी घड़ी में तुमसे शादी हुई थी। हे भगवान, अगले जन्म में इस चिरकुट को अगर पृथ्वी पर भेजो, तो मुझे मंगल ग्रह का प्राणी बनाना, ताकि शादी की कोई आशंका ना बने।

पत्नी ने बाद में तारीफ करते हुए कहा-तुमने मेरी बात का बुरा नहीं माना।

मैंने बताया कि मुझे तुम्हारा यह संदेश सुनायी दे रहा था-तू जहां -जहां चलेगा, मेरा साया साथ-साथ होगा।

कार्ड लैस ईयर फोन बहुत करतब कर सकता है जी।

उधर से भले ही यह मैसेज ब्राडकास्ट हो रहा है कि हम छोड़ चले हैं महफिल को, याद आये कभी तो मत रोना।

पर ईयर फोन यह संदेश सुना सकता है-आ जा मेरी गाड़ी में बैठ जाता।

सासों और बहुओं के संबंध एक झटके से सुधरने के ट्रेक पर आ जायेंगे।

एक कार्डलैस ईयर फोन सास के कान में, एक बहू के कान में।

सास इस सुकून के साथ धुआंधार सुना सकती है कि देखो बहू तो अब पलट कर जवाब ही नहीं देती।

बहू फुल कांफीडेंस के साथ कह सकती है-सुनाये जाओ, किसने सुननी है।

मुझे एक और सीन दिखायी पड़ रहा है।

संसद में सब परस्पर एक दूसरे के कान में हल्ला ठोंकने के ईयर फोन खौंस कर अपने ही कान में हल्ला मचा रहे हैं।

वामपंथी सांसदों के ईयर फोन से ये गीत आ रहा है-तू मेरा दुश्मन, दुश्मन मैं तेरा,...

कांग्रेसी ईयर फोनों से यह गीत झर रहा है-चैन से हमको कभी इक पल जीने ना दिया......

भाजपाई ईयर फोनों से यह संदेश निकल सकता है-हम को भी गम ने मारा, तुमको भी गम ने मारा, हम सबको गम ने मारा।

बसपा के ईयरफोन-चल चल मेरे हाथी- पर झूम रहे हैं।

संसद झूम बराबर झूम हो रही है।

क्या कहा जी, फिर संसद में काम क्या होगा।

जी जैसे अभी बहुत होता है।

अजी जो हल्ला अभी है, वह बहुत असंगठित टाइप का है। फिर कुछ क्रियेटिव टाइप का हल्ला होगा।

कभी कुछ राष्ट्रीय एकता टाइप कुछ दिखाना हो, तो सारे ईयर फोनों में एक ही गीत बजाया जा सकता है-मिले ईयर फोन मेरा-तुम्हारा तो, सुर बने हमारा।

कुछ इंटरनेशनल सीन देखिये।
जरा सोचिये
, बुश कुछ कहें, तो सारे ईयरफोन ठोंक ले।

फोकटी में रियेक्शन देने में भी टाइम क्यों जाया करना।

कहे, जाओ बुश जो कहना है। तुम्हारे कहने से होता क्या है।

सोचिये, बुश अपना बयान धकेल रहे हैं।

इधर से ईयर फोन से शकीरा अपना सुपर हिट गाना सुना रही हैं--हिप्स डोंट लाई।

शकीरा का संदेश नये संदर्भों में समझा जा सकता है-हिप्स डोंट लाई। बट बुश लाईस।

सच के मामले में ज्यादा पाक- साफ किसे माना जाये।

क्या ही धांसू च फांसू सीन उभरेगा। मुशर्रफ पाकिस्तान में डेमोक्रेसी और बेनजीर भुट्टो के संदर्भ में पब्लिक को कुछ भाषण ठेल रहे हैं।

सबको ईयर फोन पर सिर्फ यही सुनायी दे रहा है-तुम अगर मुझसे ना निभाओ, तो कोई बात नहीं। तुम किसी गैर से निबाहोगी, तो मुश्किल होगी।

साहब सच्ची का एक किस्सा और सुनिये। इधर स्वतंत्रता दिवस के सिलसिले में आयोजित एक समारोह में मैं तमाम नेताओं के भाषण सुनने एक प्रोग्राम में चला गया।

जाने क्या-क्या अगड़म-बगड़म नेता लोग बोलते रहे, पर मुझे ईयर फोन में सिर्फ यही सुनायी दिया-हम लूटने आये हैं, हम लूटकर जायेंगे।

आलोक पुराणिक

मोबाइल-9810018799