Saturday, June 30, 2007

पुन: पधारें उर्फ ऐसी-तैसीकरण अगेन

पुन: पधारें उर्फ ऐसी-तैसीकरण अगेन
आलोक पुराणिक
वो कहते हैं ना कि ज्ञान मिलना आसान है, पर उसे आत्मसात करना करना मुश्किल है।
ज्ञान मिलता तो शब्दों से है, पर आत्मसातीकरण के लिए तजुरबों की पिटाई जरुरी होती है।
एक छोटा सा बर्थ सर्टिफिकेट एक सरकारी दफतर से लेना था-दफतर में घुसते ही सामने एक बोर्ड पर लिखा दिखा- पुन: पधारें।
मैंने बाबू से पूछा-यह क्या है।
उसने बताया कि संस्कृत में लिखी चीजें वह समझता नहीं हैं। वैसे यह सब विनम्रता सप्ताह में टांगा गया था।
पर यह तो हिंदी सी ही लग रही है-मैंने अज्ञानवश कहा।
नहीं हिंदी तो वह है-प्लीज विजिट अगेन-बाबू ने क्लेरिफिकेशन दिया।
सर्टिफिकेट कंप्यूटर से निकलेगा और कंप्यूटर खराब है-बाबू ने आगे बताया।
पर कंप्यूटर ठीक कब होगा-मैंने आगे पूछा।
जब कंप्यूटर ठीक करने वाला आयेगा। कंप्यूटर ठीक करने का ठेका कमिश्नर साहब के साले के पास है, इसलिए वह कब आयेगा, यह कहा नहीं जा सकता-बाबू ने साफ किया।
पर कंप्यूटर ठीक होने और कमिश्नर के साले के ठेके का क्या संबंध है-मैंने आगे पूछा।
बाबू हंसने लगा।
मैं लगभग रोता हुआ बाहर आ लिया।
पीछे बोर्ड था- पुनर्‍ पधारें।
अब जाकर मुझे हलका सा समझ में आया कि पुन: पधारें का मतलब क्या होता है।
सरकारी दफतरों में कंप्यूटर आने का प्रावधान है, पर उनके साथ बास लोगों के साले ना आयें, ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
खैर ,बडा डेंजर जुमला है साहब- पुन: पधारें।
इसका मतलब है कि बेट्टा एक बार में तेरा काम ना होने का। दूसरी बार तो आना पडेगा। फिर हो सकता है- पुन: पधारें।
वो पहले ही बता छोडते हैं, सूचना का अधिकार और क्या होता है जी।
वैसे सूचना के अधिकार का मामला और चकाचक हो जाये, अगर हर सरकारी दफतर में यह भी साफ कर दिया जाये कि तीन बार पधारें, एक बार काम कराने की अर्जी के लिए, दूसरी बार बाबू की टालमटोल के लिए, तीसरी बार पतली गली का रास्ता पता करने के लिए, और उसमें से निकलने के लिए, जेब से यथायोग्य निकालने के लिए। कतिपय दफतरों में तीन के बजाय चार बार बुलाया जा सकता है। पर साफ पता हो, तो बंदा तैयारी करके आये। अभी तो बंदा निहत्था सा सरकारी दफतर में घुसता है, वहां पता चलता है कि उसका एनकाउंटर किये जाने की फुल तैयारी है।
पर एक सरकारी दफ्तर है, जहां नहीं लिखा है- पुन: पधारें।
राष्ट्रपति भवन पर अगर यह लिखा होता- पुन: पधारें, तो कलाम साहब के लिए मामला सीधा होता।
बताइए, आपको नहीं लगता कि काश राष्ट्रपति भवन में भी लिखा होता- पुन: पधारें ।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Friday, June 29, 2007

आई लव यू, कंडीशन्स अप्लाई

आई लव यू-कंडीशन्स अप्लाई
आलोक पुराणिक
मसले टेंशनात्मक हैं। राष्ट्रपति चुनाव के मसले पर भाकपा के बर्धनजी ने कहा यह उन्होने कैंडीडेट तो उन्होने चुनवाया। इस पर माकपा के करात से भाकपा के बर्धनजी नाराज हैं। वर्धनजी ने कहा कि वह माकपा की खुशी के लिए काम नहीं करते।
वैसे करातजी और वर्धनजी सहयोगी बताये जाते हैं।
यह सहयोग के नमूने हैं। पालिटिकल सहयोग ऐसा ही होता है। कंडीशंस अप्लाई। सुबह सहयोग की बात करके शाम को एक लात मार दें तात, तो बुरा ना मानना, बिकाज कंडीशंस अप्लाई।
नेता लोग जो भी कहें, उनके साथ लिखना चाहिए कंडीशंस अप्लाई।
जैसे तमाम आफरों, इश्तिहारों में लिखा जाता है-कंडीशंस अप्लाई।
मैं तो साहब करता हूं, जमाना खराब है।
नये साल पर एक नेता को मैंने शुभकामना कार्ड भेजा और नीचे लिखा-आपका अपना।
नेताजी कल आ गये और बोले, वहां से रिश्वत लेनी है, सीधे लेने में शर्म आ रही है। आप जाकर ले आओ। आपने ही तो लिखा था कि आप मेरे अपने हैं।
सो साहब अब मैं किसी को मैसेज में जब लिखता हूं-आपका अपना, तो लिख देता हूं, कंडीशंड्स अप्लाई। कंडीशन नंबर वन, मैं आपकी रिश्वत लेने तब तक नहीं जाऊंगा, जब तक इसमें मेरा हिस्सा न हो। आदि-आदि।
वीरेंद्र सहवाग ने जिस तरह की परफारमेंस हाल में की है, उससे एक बैटरी कंपनी के बंदे परेशान हैं। इस बैटरी कंपनी का इश्तिहार था कि हमारी बैटरी की परफारमेंस सहवाग जैसी है। तब सहवाग चल रहे थे। पर अब पब्लिक परेशान है अगर बैटरी अगर सहवाग जैसे ही चलेगी, तो सब चौपट हो जायेगा। हम उम्मीद करेंगे कि चार-छह घंटे चल जाये, पर बैटरी चलते ही ध्वस्त हो लेगी।
बैटरी कंपनी वालों को मैंने मशविरा दिया है-सहवाग और बैटरी की कंपेरिजन करते हुए लिखवा दो-कंडीशन्स अप्लाई। नीचे बहुत छोटे अक्षरों में (जिन्हे मंगल ग्रह को देखने वाली दूरबीन से ही देखा जा सके) लिखवा दो-अगर सहवाग की परफारमेंस ठीक-ठाक हो, तो ही हमारी बैटरी की परफारमेंस को उसकी परफारमेंस जैसा माना जाये। वरना हमारी बैटरी सहवाग नहीं मानी जायेगी। उसे आप आस्ट्रेलिया के किसी प्लेयर को हमारी बैटरी जैसा मान सकते हैं। उस प्लेयर का फोटू बाद में छाप दिया जायेगा।
कंडीशन्स अप्लाई-भईया बहुत जरुरी है।
इधर टीवी चैनलों पर खबरों का विकट हिसाब हो गया है। कोई दुर्घटना होती है, तो सब जल्दबाजी में सौ-डेढ़ सौ मार देते हैं। फिर धीरे-धीरे पता लगता है कि नही, इतने नहीं मरे हैं। कम मरे हैं। सुबह सौ पर शुरु होकर शाम तक बीस तक आ जाते हैं।
मेरी राय है कि हर एंकर को खबर पढ़ते हुए कह देना चाहिए-कंडीशन्स अप्लाई। कंडीशन यह है कि कंपटीटर चैनल वाले हमसे ज्यादा मार रहे हैं, सो हमें भी मारने पड़ रहे हैं। शाम तक क्या हो जाये, हमें नहीं पता। कंडीशन्स अप्लाई।
एक और सीन सामने आता है। चुनावी माहौल सा हो लिया है। भाजपा के राजनीतिक स्टोर में रामलला हनुमानजी से कह रहे हैं कि प्रियवर हम भाजपा को फिर याद आने लगे हैं। हनुमानजी कह रहे हैं, क्योंकि स्वामी कोई विधानसभा, लोकसभा चुनाव सामने आने लगे हैं। पर आप यह ना समझना कि आपका मंदिर बन ही जायेगा। कंडीशन्स अप्लाई।
भाजपा रामजी की बात जब भी करे,साथ में लिख देना चाहिए, कंडीशंस अप्लाई।
कंडीशन नंबर वन, जब हम सेंटर में होंगे, तो रामजी को दूर से ही राम-राम करेंगे। राम से ऐसी दूरी बनायेंगे कि राम खुद कह उठें, हे राम। कंडीशन नंबर टू, जब पब्लिक ही हमें आराम करने के लिए बोल देगी, तब हम फिर राम को याद करेंगे। पर कंडीशन नंबर थ्री, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम रामलला को लेकर सीरियस ही हैं, क्योंकि हम जब भी रामजी की बात करेंगे, कंडीशंस एप्लाई।
कंडीशंस अप्लाई के फंडे सीपीएम पर भी लागू होते हैं। सीपीएम वाले जब हरियाणा में जमीन अधिग्रहण का विरोध करते हैं, तो वह ठीक होता है। और जब वे खुद पश्चिम बंगाल में जमीन का अधिग्रहण करते हैं, तो यह भी ठीक होता है। जो ठीक होता है, उसकी उलटी बात भी ठीक होती है, उसकी उलटी बात भी ठीक होती है, कंडीशंस अप्लाई। कंडीशन नंबर एक , जो हम करते हैं, वही ठीक होता है, बाकी सब षडयंत्र होता है। कंडीशन नंबर टू, अगर ये षडयंत्र हमारे फेवर में होता है, तो फिर यह ठीक ही होता है। जो हमारे फेवर में नहीं है, वह सिर्फ ममता बनर्जी की साजिश है। वैसे पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम समेत तमाम जगहों पर आजकल जो हो रहा है, उसे देखकर लगता है कि वहां सिर्फ ममता बनर्जी की साजिश ही हो रही है। पर वह इतनी साजिश कर कैसे पा रही हैं, षडयंत्र।
और इसके बारे में सवाल ना पूछें, कंडीशंस अप्लाई।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799

Thursday, June 28, 2007

पोरस का नैकलेस

पोरस का नैकलेस
आलोक पुराणिक
अपना मानना है कि हेयर और स्टाइल दो अलग-अलग मामले हैं। हेयर ऊपर वाला देता है या नहीं भी देता है, पर स्टाइल बंदा खुद बनाता है।
ऐसे कई हैं, जिनके पास हेयर नहीं हैं, पर स्टाइल है। हम सिर्फ पुराने विलेन शेट्टी की बात नहीं कर रहे हैं।
ऐसे भी कई हैं, जिनके पास सिर्फ हेयर हैं,पर स्टाइल नहीं है। अब नटवर सिंह के अच्छे-खासे हेयर हैं, पर बहुत नान-स्टाइलिश अंदाज में विदा हुए।
ऐसे बहुत कम बंदे हैं, जिनके पास बहुत जोरदार हेयर हैं, और बहुत जोरदार स्टाइल है। हम सिर्फ मनमोहन सिंहजी की बात नहीं कर रहे हैं। बैट्समैन धोनी की बात भी कर रहे हैं।
पर सारी की सारी स्टाइल को हेयर तक लिमिटेड नहीं मानना चाहिए। सोचने की बात यह है कि शरीर में और भी बहुत कुछ है हेयर के अलावा। अब जैसे अगर देवानंद साहब को याद करें, जो परमानेंट हिलायमान मुद्रा में रहते थे, तो उनकी कमर स्टाइल थी।
पर यहां बात हेयर स्टाइल की हो रही है। एक बहुत प्यारी सी बच्ची के हेयर देखकर मैंने उसे कहा-बेबी सो क्यूट।
उसने पलटकर जवाब दिया-आई एम नाट बेबी।
हेयर स्टाइल से कनफ्यूजन हो जाता है। अच्छे-खासे बाबा बेबी लगने लग जाते हैं।
इधर कई बाबा लोग लंबे हेयर के साथ, कान में ईयररिंग, नैकलेस, हाथों में चूड़ी-कड़े टाइप भी पहनते हैं। एक और एक्सपर्ट ने खुलासा किया कि जितनी ज्वैलरी भप्पी लहरी अब पहनते हैं, उतनी तो उत्सव फिल्म में रेखा ने भी नहीं पहनी थी।
मैंने एक नौजवान से पूछा-यार ये ईयररिंग चूड़ियों का नया फैशन क्या है।
उसने कहा-आप बहुत इग्नोरेंट टाइप के बंदे हैं। यह फैशन बहुत पुराना है। आप सारे भगवानों के पुराने फोटू देखिये। सबने कानों में ईयरिंग पहने हुए हैं। सबने नैकलेस पहना हुआ है। ये मामला बहुत पुराना है।
मैने गौर से पुराने फोटू देखे, तो पता लगा कि नौजवान सही कह रहा था। सारे पुराने फोटुओं में भगवान लोग फुल मेकअप में हैं। न सिर्फ ज्वैलरी में बल्कि लिपस्टिक आदि से भी सुसज्जित हैं। सबके लंबे बाल हैं।
जरा गौर से देखिये, किसी भी भगवान को बगैर ज्वैलरी, लिपस्टिक के नहीं पायेंगे।
भगवान लोगों तो छोड़िये, पुराने राजाओं के फोटू बिना नैकलेस और इयरिंग के नहीं हैं।
अभी एक म्यूजियम में सिकंदर और पोरस की फोटू देखी। समझ में आ गया पोरस क्यों हारा था। सिकंदर के सिर पर तो एक हैलमेट टाइप का आइटम था, भाई का जब मन करे, तब लगा सकता था। पोरस के कानों में ईयरिंग थे, नैकलेस था। लंबे से बाल थे। मैं कल्पना कर सकता हूं सिकंदर फुरती से लड़ने के लिए आ गया होगा। पोरस को ईयरिंग जमाने में, नैकलेस का एंगल जमाने में ही टाइम लग गया होगा। तब तक सिकंदर ने धर दबोचा होगा। फिर मैंने और रिसर्च की तो पता लगा कि युद्ध के टाइम रावण भी नैकलेस, ईयरिंग से सुसज्जित था। रामजी तो जंगल की वेशभूषा में बहुत कमफर्टेबल थे। रावण को भी नैकलेस, ईयरिंग जमाने में बहुत टाइम लग गया होगा, तब तक तो रामजी ने मामला आरपार कर दिया होगा।
रावण और पोरस का हश्र देखकर मैं डर गया हूं, नैकलेस और ईयरिंग से लड़ने-भिड़ने वालों को दूर रहना चाहिए। भगवानों को ये सब शोभा देते है। उनका क्या है, सिर्फ हाथ ऊपर उठाकर पोज देना है, कुछ करना नहीं है। सो कोई प्राबलम नहीं है। जिन्हे कुछ करना है, वो ये सब अफोर्ड नहीं कर सकते।
मैंने अपनी शादी के टाइम अपने ससुर साहब के सामने ये ओरिजनल विचार व्यक्त किये थे कि अपनी बेटी को सोना देने के बजाय बेहतर है कि आप इतनी कीमत के रिलायंस के शेयर दे दो, ज्यादा ठीक रहेगा। वो बोले, बात तो ठीक है, पर दिक्कत यह है कि रिलायंस के शेयर कहीं दिखाये तो नहीं जा सकते। सोना तो चार फंक्शनों में दिखाया जायेगा।
अब उन्हे समझाता हूं -सोना दिखते-दिखते भी दोगुना नहीं हुआ, रिलायंस बिना दिखे चार गुना रिटर्न दे गया।
ज्वैलरी को लेकर हुई नासमझी ने सिर्फ पोरस को ही नहीं मारा, मुझे भी मारा है।
आलोक पुराणिक मोबाइल-981018799

Wednesday, June 27, 2007

सत्य बनाम समोसा

सत्य बनाम समोसा
आलोक पुराणिक
अभी कुछ देर पहले एक स्कूल में चीफ गेस्ट बनकर गया, तो एक भाषण दिया। फिर बेटी के स्कूल में एक फंक्शन में गया, तो किसी चीफ गेस्ट का भाषण सुना। फिर फिर शाम को एक लेखक के शोक समारोह में गया, तो भाषण सुना। फिर एक लेखक के सम्मान समारोह में गया, तो भाषण सुना।
अब कचुआ गया हूं। सम्मान से शोक तक सब जगह भाषण ही भाषण।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मरने के बाद बंदा ऊपर जाता होगा,तो सबसे पहले यमराज भी भैंसे पर लादकर ले जाते समय एक भाषण दे देते होंगे। फिर चित्रगुप्त भी पाप-पुण्य की एकाउंटिंग करते हुए एकाध प्रवचन ठोंक देते होंगे। फिर नाना प्रकार के ऋषि –मुनि ब्रह्मचर्य के महत्व से लेकर झूठ बोलने के नुकसान तक के विषयों पर भाषण ठोंकते होंगे।
अब समझ में आ रहा है कि आदमी मरने से इतना क्यों डरता है। ऊपर तो सुना है कि भाषणों से डरकर दोबारा मरने का आप्शन भी नहीं होता।
अभी एक अमेरिकन ने भारी रिसर्च करके बताया है कि भाषणों के मामले में इंडिया जैसा देश कोई और नहीं है। जैसी परिस्थितियों में जितने भाषण भारत में दिये गये हैं, वैसे पूरे ब्रह्मांड में कहीं दिये गये हैं। उसने बताया है कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो महाभारत के युद्ध के मौके पर भी एक कोना तलाशकर भाषण का जुगाड़ बैठा लिया। अर्जुन जरा सी आनाकानी कर रहा था, तो पूरे अठारह अध्याय का भाषण दिया, जिसे हम गीता के नाम से जानते हैं।
भाषण कला मध्यकाल में कुछ लुप्त टाइप हो गयी थी। वरना मेरा यकीन है कि इतनी मारकाट नहीं होती। उदाहरण के लिए महाराणा प्रताप और अकबर के बीच झगड़ा नहीं होता, अगर अकबर बिजी होता तरह-तरह के भाषणों में-जैसे सांप्रदायिक एकता में अकबर के धर्म -सुलहकुल के महत्व पर भाषण, जैसे फतेहपुर सीकरी की स्थापत्यकला में पश्चिम के योगदान पर भाषण, जैसे बीरबल के सेंस आफ ह्यूमर पर भाषण, जैसे फतेहपुर सीकरी के जल संकट में निजी क्षेत्र का योगदान। इतने विषय हैं साहब अकबर की पूरी जिंदगी कट जाती, भाषण खत्म नहीं होते। महाराणा प्रताप भी भाषण दे सकते थे-राजस्थान में राजपरिवारों के कलह का विकास पर असर, चेतक नामक घोड़े की केस स्टडी............।
जिंदगी भाषणों में निकल जाती, टेंशन कम होते।
वैसे भाषण दिये जाते हैं, दरअसल लिये नहीं जाते।
मेरा एक छात्र परम जुआरी और सिगरेटबाज है। उसके पापा रोज उसे इसके खिलाफ भाषण देते हैं। पांच सालों से मैं देख रहा हूं।
एक दिन मैंने दोनों से पूछा-ये क्या घपला है, पांच साल से रोज एक ही राग। तुम दोनों के बीच इस तरह से संबंध खराब नहीं होते।
छात्र ने बताया -गुरुजी संबंध खराब इसलिए नहीं होते कि हम दोनों एक-दूसरे के काम में दखल नहीं देते।
मैंने पूछा-वो कैसे।
उसने बताया-जी भाषण देना उनका काम है,वो देते हैं। ना लेना मेरा काम है, मैं नहीं लेता। दोनों अपना-अपना काम करते रहते हैं। पांच साल से कर रहे हैं।
इधर सर्वे करके मैंने पता किया है कि तमाम टीवी चैनलों पर चलने वाले तमाम तरह के प्रवचनों –भाषणों में कोई सौ टन सत्य, नैतिकता, प्रेम झरता है। इतना सत्य निकलकर जाता कहां है,किसी को नहीं पता। सप्लाई तो धुआंधार होती है, पर कोई लेता नहीं है।
सत्य की खोज-नामक एक विद्वान के भाषण में मैं गया। शुरु होने के दो मिनट के अंदर पहुंचा, तो देखा कि धुआंधार तालियां बज रही हैं। पता लगा कि तालियों की वजह यह थी कि जनता की मांग पर भाषण की वास्तविक सप्लाई से पहले ही, उसे दिया गया मान लिया। अब सफल तालीखेंचू भाषण वो होते हैं, जो दिये ही नहीं जाते। दिये गये भाषणों को यह सम्मान नहीं मिलता।
यह टेकनीक इधर चल निकली है। लिखित भाषण की सप्लाई हो जाती है, फिर उसे आटोमेटिक दिया हुआ मान लिया जाता है। इसके बाद चाय-पान की ठोस सप्लाई होती है, उसे आटोमेटिक दिया हुआ नहीं माना जाता।
मैंने सत्य की खोज वाले विद्वान से बात की,तो उसने बताया कि सत्य को न दो, तो भी लोग दिया हुआ मान लेते हैं, पर चाय-समोसे के मामले में वे ऐसी उदारता नहीं दिखाते।
समोसा सत्य से ज्यादा ठोस सत्य होता है।
मुझे लगता है कि कुछ दिनों बार भाषणों के आमंत्रण कार्ड इस तरह के छपेंगे-
---आप अलांजी के फलां विषय पर भाषण सुनने के लिए आमंत्रित हैं। विशेष आकर्षण-भाषण सिर्फ एक और मिठाइयां चार तरह की।
--आप फलांजी के अलां विषय पर भाषण सुनने के लिए आमंत्रित हैं। विशेष आकर्षण-भाषण सिर्फ दो मिनट होगा,बाकी का पढ़ा हुआ मान लिया जायेगा।
--आप सत्य प्रचारक मंडल के वार्षिक सम्मेलन पर सादर आमंत्रित हैं।
विशेष आकर्षण-मुख्य अतिथि मनमोहन सिंह जी भाषण बिलकुल नहीं देंगे।
चलूं, भाषण कला पर एक लेक्चर सुनने जाना है। टेंशन है कि सच्ची में सुनना पड़ेगा।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-0-9810018799

Tuesday, June 26, 2007

तो तू आ क्यों जात्ता है बताने

तो तू आ क्यों जात्ता है
आलोक पुराणिक
मई-जून के महीने विश्वविद्यालय टीचरों के लिए कुछ गलतफहमी के होते हैं। उनकी पूछ कुछ इस तरह से बढ़ जाती है, जिस तरह से श्राद्ध पक्ष में पंडों की। यह खाकसार भी लपेटे में आ गया और बच्चों को एक कैरियर काऊंसलिंग सेशन में बता रहा था कि सीए कर लो, एमबीए कर लो, लॉ कर लो।
एक छात्र बोला - मैं अभी एक अमेरिकन मैगजीन में पढ़कर आ रहा हूं, हथियार के डीलर सबसे ज्यादा कमाई करते हैं। आप ये वाला कैरियर आप्शन तो बता ही नहीं रहे हो।
मेरा अज्ञान मेरे ज्ञान से बहुत ज्यादा है। इस कैरियर के बारे में मुझे ज्ञान नहीं है-मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की।
जब पता नहीं है, तो तू आ क्यों जात्ता है बताने -छात्र ने एकदम स्वाभाविक प्रतिक्रिया की।
मैं खुश हुआ, कितना विनम्र बालक है। वरना , वो तो ठोंक भी सकता था मुझे।
देखो, हथियारों के बारे में जानकारी तो आर्मी में मिलती है, एयरफोर्स में मिलती है। मेरे ख्याल में तुम्हे सेना या एयरफोर्स में जाना चाहिए। वहां सारी जानकारियां होती हैं -मैंने अपनी तरफ से समझाने की कोशिश की।
वह तो तमाम मैगजीनों में हैं। हमें तो ये बताओ कि हथियारों के सौदे कैसे होते हैं, कौन करवाता है। स्विस खाते में रकम कैसे जमा होती है। मिग चलाने वाला पायलट को हजारों मिलते हैं, पर मिग बिकवाने वाले को अरबों मिलते हैं। गुरुवर कुछ इस पर प्रकाश डालें-छात्र ने आगे कहा।
इस संबंध में चंद्रास्वामी, क्वात्रोकि, और भी तमाम विद्वान प्रकाश डाल पायेंगे। उनसे मिलो-मैंने बताया।
पर इनसे मिलने के लिए क्या सैटिंग करने पड़ेगी, इस पर कहीं कुछ किताब है-छात्र ने आगे पूछा।
नहीं, यह सब मेरी जानकारी में नहीं है-मैंने फिर असमर्थता जाहिर की।
जब पता नहीं है, तो तू आ क्यों जात्ता है बताने छात्र ने फिर एकदम स्वाभाविक प्रतिक्रिया की।
बेटा, तुम चाहो तो एकाउंटेंट बन सकते हो, वकील बन सकते हो-मैंने छात्रों के सामने और कैरियर विकल्प रखे।
एकाउंटेंट बनकर भी अगर इन हथियार डीलरों के एकाउंट रखने हैं और इन्ही के लिए अगर केस लड़ना है, तो फिर सीधे इन जैसा क्यों न बन लिया जाये। मेरे शहर के एक बंदे के पास अठ्ठाईस पेट्रोल पंप हैं। कुछ पेट्रोल पंपीय कैरियर बनाने के नुस्खे बताइए। पेट्रोल पंप कैसे हासिल करें, इस विषय पर कोई लेक्चर दें या किताब बतायें-छात्र ने आगे पूछा।
इस संबंध में उससे ही पूछो, जिसके पास इतने पेट्रोल पंप हैं-मैंने अपनी राय दी।
वो क्या बतायेंगे, पूरे शहर को मालूम है। वह तो उन वाले केंद्रीय मंत्री के दामाद हैं। आप तो ये बताओ मंत्री का दामाद कैसे बना जाये, क्या इस विषय पर कोई कोर्स या किताब उपलब्ध है-छात्र आगे पूछ रहा है।
जी मुझे नहीं पता-मैं फिर कह रहा हूं।
जब पता नहीं है, तो तू आ क्यों जात्ता है बताने -छात्र ने फिर स्वाभाविक प्रतिक्रिया की।
मैं भी यही सोच रहा हूं कि जब मुझे पता ही नहीं है, तो मैं कैरियरों के बारे में बताने जाता क्यों हूं।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799

अनारकली ही क्यों भर के चली

अनारकली ही क्यों भर के चली
आलोक पुराणिक
आपके आसपास हो रही होंगी, बहुत सी बेतुकी बातें। पर आप नहीं पकड़ पायेंगे, कोई तुक का आदमी ऐसी बातें पकड़ ही नहीं सकता। उन्हे पकड़ने के लिए बेतुका या व्यंग्यकार होना जरुरी है। इस खाकसार के पास दोनों ही क्वालिफिकेशन्स हैं।
कल देखा, पांच ट्रकों के पीछे लिखा था-अनारकली, भर के चली। तीन और ट्रकों पर लिखा था-रामकली, भर के चली।
अब देखिये, अनारकली और रामकली को भर के चली की तुक ने मरवा दिया।
कितनी बेतुकी बात है कि रामकली ही क्यों भर के चली, कोई शीला या सुषमा क्यों नहीं।
अरे भई अनारकली का कसूर है कि जो फुलमफुल लद कर चलेगी, ऐसा कोई जिम्मा सुशीला या सुनीता नामक ट्रक पर क्यों नहीं डाला गया है।
चली की तुक के लपेटे में अनारकली और रामकली ही आ पाती हैं।
अरे ट्रक का नाम राकेश भी हो सकता है, रमेश भी क्या बुरा है।
पर नहीं राकेश का भर के चली के साथ तुक नहीं बैठता।
और सोचने की बात यह है कि अगर अनारकली बना ही दिया, तो थोड़ा तमीज से पेश आओ। कुछ वजन कम लादो। पर नहीं, वहां साफ घोषणा है कि भर के चली। फुलमफुल भर के ही चलना होगा अनारकली को। अनारकली को जरा भी राहत नहीं है।
ट्रक अनारकली हो लिया, बात कितनी बेतुकी है, पर कितनी तुक से कही जा रही है। है ना।
शाहजादा सलीम अब का हाल देख लें, तो आत्महत्या कर लें, उनकी अनारकली को कैसे-कैसे भर करके ले जाया जा रहा है।
या जरा एक सीन पर सोचिये कि शाहजादा अबके से सीन में बादशाह अकबर से कहें, डैडी आज आपको अनारकली से मिलवाता हूं। अकबर मिलने आयें, तो सामने सात सौ टन का ट्रक खड़ा हो, जिस पर लिखा हो अनारकली।
अकबर को ना कहने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।
अकबर कहते-जा बेटा, कूद इस ट्रक के आगे। अनारकली तुझे अभी ही निपटा देगी।
अब सोचिये कैसी-कैसी इमेज बनती हैं, जिन्होने मुगले आजम देखी है या नहीं भी देखी है, तो अनारकली के नाम से मधुबाला याद आती है और सामने मिलता है 400 टन का ट्रक- अनारकली।
सौंदर्यबोध का ऐसा ट्रकीकरण। भला हो, मधुबालाजी यह सीन देखने के लिए आप मौजूद नहीं हैं।
ट्रक और अनारकली, हाय कैसी-कैसी बेतुकी बातें इतनी तुक मिलाकर कही जा रही हैं, कि समझना मुश्किल है।
मैंने एक ट्रक वाले से विस्तार से इस संबंध में रामकली और तुक पर विमर्श करना चाहा। मैंने कहा कि देख भाई ट्रक का नाम वज्रप्रसाद भी हो सकता है। अरे भीम भी रखा जा सकता है।
ट्रक वाला बोला, आप बात नहीं समझ रहे हैं वज्रप्रसाद और भीम से भर के चली का तुक नहीं बनता। भर के चली-हमारा फोकस वाक्य है। फुलमफुल भर के नहीं चलाया,तो क्या कमाया। हमें कमाई देखनी है, और तुक भी देखनी है। आप बेतुकी बातें कर रहे हैं।
अब आप बताइए कि बेतुकी बात कौन कर रहा है।
पर ऐसा नहीं है कि बेतुकी बातों के लिए तुकों का सहारा लेना अनिवार्य है। बंदा होशियारी से काम ले, तो बेतुकी बातें तुकों के बगैर भी कही जा सकती है।
वह एक इश्तिहार हुआ करता था पेन का-लिखते-लिखते लव हो जाये।
मैंने लिखते-लिखते लव हो जाये पर सोचा और सोचा कि भई ये लिख क्या रहा था। क्या ये महबूबा की गली में जाकर उसके लिए एक्जाम में जरुरी सारे विषयों के नोट्स लिख रहा था। नोट्स देने के उपरांत लव हो जाता है, कुछ इस टाइप का संदेश इससे मिलता है। बहुत कष्टसाध्य संदेश है, अपने नोट्स लिखने में ही प्रेमीजनों को दिक्कत होती है, औरों के लिए क्या लिखेंगे।
फिर मैंने इस संदेश पर दूसरी तरह से विचार किया कि लिखते-लिखते लव हो जाने का मतलब है लिखा पहले, लव बाद में हुआ। ये तो बहूत डेंजरस सीन है। बिना कन्फर्म किये लवलैटर लिखना और फिर उम्मीद करना कि जवाब में लव आयेगा, यह तो ठुकाई-पिटाई की इंतजाम है। इस संदेश के फलस्वरुप कई प्रेम-प्रशिक्षुओं ठुंके होंगे। लैटर चला गया, बदले में लव नहीं, कन्या के पहलवान भाई आये।
पहले लव कन्फर्म हो जाये, तो ही लव लैटर तक जाना चाहिए। पर नहीं, जोर-शोर से कहा गया कि लिखते-लिखते लव हो जाये।
एक पैन वाले से मैंने लेखन और लव पर विमर्श करना चाहा, उसने भी वही बात कही-आप बहुत बेतुकी बातें करते हैं।
अब आप ही बताइए बेतुकी बातें कौन कर रहा है।
आलोक पुराणिक एफ-1 बी-39 रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011
मोबाइल-9810018799

Sunday, June 24, 2007

अनारकली ही क्यों भर के चली

अनारकली ही क्यों भर के चली
आलोक पुराणिक
आपके आसपास हो रही होंगी, बहुत सी बेतुकी बातें। पर आप नहीं पकड़ पायेंगे, कोई तुक का आदमी ऐसी बातें पकड़ ही नहीं सकता। उन्हे पकड़ने के लिए बेतुका या व्यंग्यकार होना जरुरी है। इस खाकसार के पास दोनों ही क्वालिफिकेशन्स हैं।
कल देखा, पांच ट्रकों के पीछे लिखा था-अनारकली, भर के चली। तीन और ट्रकों पर लिखा था-रामकली, भर के चली।
अब देखिये, अनारकली और रामकली को भर के चली की तुक ने मरवा दिया।
कितनी बेतुकी बात है कि रामकली ही क्यों भर के चली, कोई शीला या सुषमा क्यों नहीं।
अरे भई अनारकली का कसूर है कि जो फुलमफुल लद कर चलेगी, ऐसा कोई जिम्मा सुशीला या सुनीता नामक ट्रक पर क्यों नहीं डाला गया है।
चली की तुक के लपेटे में अनारकली और रामकली ही आ पाती हैं।
अरे ट्रक का नाम राकेश भी हो सकता है, रमेश भी क्या बुरा है।
पर नहीं राकेश का भर के चली के साथ तुक नहीं बैठता।
और सोचने की बात यह है कि अगर अनारकली बना ही दिया, तो थोड़ा तमीज से पेश आओ। कुछ वजन कम लादो। पर नहीं, वहां साफ घोषणा है कि भर के चली। फुलमफुल भर के ही चलना होगा अनारकली को। अनारकली को जरा भी राहत नहीं है।
ट्रक अनारकली हो लिया, बात कितनी बेतुकी है, पर कितनी तुक से कही जा रही है। है ना।
शाहजादा सलीम अब का हाल देख लें, तो आत्महत्या कर लें, उनकी अनारकली को कैसे-कैसे भर करके ले जाया जा रहा है।
या जरा एक सीन पर सोचिये कि शाहजादा अबके से सीन में बादशाह अकबर से कहें, डैडी आज आपको अनारकली से मिलवाता हूं। अकबर मिलने आयें, तो सामने सात सौ टन का ट्रक खड़ा हो, जिस पर लिखा हो अनारकली।
अकबर को ना कहने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।
अकबर कहते-जा बेटा, कूद इस ट्रक के आगे। अनारकली तुझे अभी ही निपटा देगी।
अब सोचिये कैसी-कैसी इमेज बनती हैं, जिन्होने मुगले आजम देखी है या नहीं भी देखी है, तो अनारकली के नाम से मधुबाला याद आती है और सामने मिलता है 400 टन का ट्रक- अनारकली।
सौंदर्यबोध का ऐसा ट्रकीकरण। भला हो, मधुबालाजी यह सीन देखने के लिए आप मौजूद नहीं हैं।
ट्रक और अनारकली, हाय कैसी-कैसी बेतुकी बातें इतनी तुक मिलाकर कही जा रही हैं, कि समझना मुश्किल है।
मैंने एक ट्रक वाले से विस्तार से इस संबंध में रामकली और तुक पर विमर्श करना चाहा। मैंने कहा कि देख भाई ट्रक का नाम वज्रप्रसाद भी हो सकता है। अरे भीम भी रखा जा सकता है।
ट्रक वाला बोला, आप बात नहीं समझ रहे हैं वज्रप्रसाद और भीम से भर के चली का तुक नहीं बनता। भर के चली-हमारा फोकस वाक्य है। फुलमफुल भर के नहीं चलाया,तो क्या कमाया। हमें कमाई देखनी है, और तुक भी देखनी है। आप बेतुकी बातें कर रहे हैं।
अब आप बताइए कि बेतुकी बात कौन कर रहा है।
पर ऐसा नहीं है कि बेतुकी बातों के लिए तुकों का सहारा लेना अनिवार्य है। बंदा होशियारी से काम ले, तो बेतुकी बातें तुकों के बगैर भी कही जा सकती है।
वह एक इश्तिहार हुआ करता था पेन का-लिखते-लिखते लव हो जाये।
मैंने लिखते-लिखते लव हो जाये पर सोचा और सोचा कि भई ये लिख क्या रहा था। क्या ये महबूबा की गली में जाकर उसके लिए एक्जाम में जरुरी सारे विषयों के नोट्स लिख रहा था। नोट्स देने के उपरांत लव हो जाता है, कुछ इस टाइप का संदेश इससे मिलता है। बहुत कष्टसाध्य संदेश है, अपने नोट्स लिखने में ही प्रेमीजनों को दिक्कत होती है, औरों के लिए क्या लिखेंगे।
फिर मैंने इस संदेश पर दूसरी तरह से विचार किया कि लिखते-लिखते लव हो जाने का मतलब है लिखा पहले, लव बाद में हुआ। ये तो बहूत डेंजरस सीन है। बिना कन्फर्म किये लवलैटर लिखना और फिर उम्मीद करना कि जवाब में लव आयेगा, यह तो ठुकाई-पिटाई की इंतजाम है। इस संदेश के फलस्वरुप कई प्रेम-प्रशिक्षुओं ठुंके होंगे। लैटर चला गया, बदले में लव नहीं, कन्या के पहलवान भाई आये।
पहले लव कन्फर्म हो जाये, तो ही लव लैटर तक जाना चाहिए। पर नहीं, जोर-शोर से कहा गया कि लिखते-लिखते लव हो जाये।
एक पैन वाले से मैंने लेखन और लव पर विमर्श करना चाहा, उसने भी वही बात कही-आप बहुत बेतुकी बातें करते हैं।
अब आप ही बताइए बेतुकी बातें कौन कर रहा है।
आलोक पुराणिक एफ-1 बी-39 रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011
मोबाइल-9810018799

तब लड़कियों को छेड़ने का टाइम सैट होता था

वैजयंतीमालाजी, अब छत है ही कहां
आलोक पुराणिक
मीडिया के नये छात्रों को पुराने गीत समझा रहा था। दिलीप कुमार वैजयंतीमाला के पुराने गीत –तुझे चांद के बहाने देखूं, तू छत पर आ जा गोरिये के- डांस-गाने का वीडियो चल रहा था।
एक छात्र ने पूछा-इस गाने में हीरोईन कौन है। हीरोईन नहीं दिख रही है।
मैंने बताया –वैजयंतीमाला हीरोईन हैं।
छात्र बोला-जी कहां की हीरोईन हैं। इत्ते कपड़े पहने हुई हैं। इत्ते कपड़े तो अब हीरोईन की मम्मी भी नहीं पहनतीं। हम तो इतने कपड़े पहनने वाली को दादी मानते हैं। पर दादी हीरोईन कैसे हो सकती है। कुछ घपला है।
मैंने समझाया-बेटा कोई घपला नहीं है। गीत को समझो, देखो, सुनो कितनी सुंदर बात कही गयी है। तू छत पर आ जा गोरिये। कितने सीधे बोल हैं। हैं ना।
मैंने गीत के सौंदर्यशास्त्र में घुसने का प्रयास कर रहा था।
पर छात्र ने सौंदर्यशास्त्र में घुसने से इनकार कर दिया, वह गीत के अर्थशास्त्र में घुस गया।
छात्र बोला-ये हीरो जरुर फुक्का है, छत पर क्यों ले जा रहा है। कहीं और क्यों नहीं ले गया। अरे ठीक है, तब शापिंग माल नहीं थे, मल्टीप्लेक्स नहीं थे। पर वह होटल तो ले जा सकता था। किसी ढंग से रेस्त्रां में क्यों नहीं ले गया।
मैंने समझाने की कोशिश की –बेटा तब इस तरह की गतिविधियों के केंद्र के रुप में छत को ही मान्यता मिली हुई थी। सब छत पर ही जाते थे।
दूसरा छात्र बोला-बाई दि वे छत का मीनिंग क्या होता है।
मैंने समझाया-बेटा छत यानी की टाप फ्लोर से भी ऊपर टाप मतलब एकदम टापमटाप।
छात्र बोला-ओजी कमाल करते हो, पच्चीस फ्लोर की हमारी बिल्डिंग, इसमें कोई लड़का अगर किसी लड़की को छत पर ले जायेगा, तो आयेगा कब। दो घंटे तो जाने में लग लेंगे। फिर वापसी। और कोई दिल का कच्चा हो, तो बीच में टें बोल जायेगा। ये छत पर जाने, ले जाने का काम तो बहूत रिस्की है। और फिर छत है ही कहां। वहां तो जाने कहां-कहां का कूड़ा-कबाड़ भरा पड़ा है।
मैंने आगे समझाने की कोशिश की-बेटा तुम छत पर ही अटक गये, आगे गाना पूरा सुनो। तुझे चांद के बहाने देखूं, समझो हीरो कितनी महीन बात कह रहा है।
पर चांद दिखता ही कहां है। हमारे आगे तीस फ्लोर की बिल्डिंग है। पीछे पच्चीस फ्लोर की बिल्डिंग है। अगल-बगल शापिंग माल है। चांद दिखता ही कहां है। चांद ही नहीं दिखता , तो उसके बहाने किसे देखें। पर गोरी को देखने के लिए चांद का बहाना क्यों चाहिए-एक छात्र ने एकदम ठोस समस्या रखी।
देखो, बच्चो अब बहाने दूसरे टाइप के होते हैं। अब तो कंबाइंड स्टडीज से लेकर कालेज फंक्शन के बहाने सब एक दूसरे को देख लेते हैं। पर तुम गाना आगे सुनो ना, इसमें लड़कों के कैरेक्टर पर कमेंट है। गाने में हीरोईन कह रही है कि अभी छेड़ेंगे गली के सब लड़के, चांद बैरी छिप जाने दे। यानी लड़कों का कैरेक्टर हमेशा से कुछ ऐसा ही टाइप का रहा है। वैजयंती माला भी उनकी छेड़ाखानी की शिकायत करती थीं और अब की हीरोईनें तो करती ही हैं-मैंने छात्र को एक्सप्लेन करने की कोशिश की।
नहीं सर आप गाने का गलत इंटरप्रिटेशन कर रहे हैं। हीरोईन ने कहा कि अभी छेड़ेंगे गली के सब लड़के यानी लड़कों के छेड़ने का समय पूर्व-निर्धारित है और वह समय सबको पता है, लड़कों को भी, हीरोईन को भी। तो जी उस टाइम तो बहुत मजे थे, लड़कों के छेड़ने के लिए समय निर्धारित कर दिया जाता था। अब तो ऐसा कुछ नहीं होता जी-एक छात्र ने अपनी व्याख्या पेश की।
तुम पूरे गीत को समझो ना। हीरो हीरोईन को बता रहा है-तेरी चाल है नागिन जैसी, जोगी तुझे ले जायेंगे। समझो इस गीत के मर्म को समझो-मैने गीत को आगे समझाने की कोशिश की।
जी अगर नागिन का मामला है, तो फिर तो टीवी चैनल वाले ले जायेंगे। नागिन बनी प्रेमिका, नागिन का प्रेम का टाइप कुछ धांसू प्रोग्राम बनायेंगे, ये जोगी क्यों ले जायेंगे। नागिनों का काम तो टीवी चैनलों को पड़ता है ना कि जोगियों को। या उस दौर में जोगी लोग टीवी चैनल चलाया करते थे क्या-छात्र आगे पूछ रहा है।
अब आप ही बताइए कि नये छात्रों को पुराने गीत कैसे समझाये जायें।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-09810018799

आलोक पुराणिक की संडे सूक्ति-चमक चमचई से आती है

आलोक पुराणिक की संडे सूक्ति-चमक चमचई से आती है
आलोक पुराणिक
शुक्र चांद की सोहबत में चमक रहा था, इस धांसू खगोलीय कांड को बच्चों को समझाने की कोशिश कर रहा था।
बच्चो देखो समझो, वह छोटा सा शुक्र है और उस बड़े को तुम जानते हो –चांद। दोनों चमक रहे हैं, पता है, इसका कारण क्या है-मैंने बातचीत शुरु की।
जी कारण साफ है कि बड़े बास के साथ जो भी अटैच हो लेगा, वह चमक ही जायेगा। बास का ड्राइवर भी चमाचम चमकता है। बास का खास हमेशा चमकता है। बड़े के साथ अटैच हो लो, चमक खुद –ब-खुद आ लेगी। सिंपल कारण है, आपको क्यों नहीं समझ में आ रहा है-एक बच्चे ने कहा।
बेटा बात को समझो। इस मसले को ऐसे मत देखो, शुक्र भी एक ग्रह है। चंद्रमा भी एक ग्रह है। दोनों ही ग्रह हैं। यूं दोनों का ही स्टेटस सेम सा है-मैंने बच्चे को समझाया।
जी दोनों ही ग्रह हैं, माना। पर आप यह भी समझिये कि हमारे परिचय में दो दरोगा हैं। एक दरोगाजी चौराहे पर तैनात हैं और एक आबकारी मंत्री के साथ अटैच हैं। रोज अख़बार में फोटू किसका चमकता है, आबकारी मंत्री वाले दरोगाजी का, रोज नये-नये ठेकों का उद्घाटन करते मंत्रीजी के साथ-बच्चे ने साफ किया।
नहीं तुम बात नहीं समझ रहे हो, दरोगाजी का मामला दूसरा है। ग्रहों का मामला दूसरा है, वहां दूसरे सिद्धांत लागू होते हैं-मैंने समझाने की कोशिश की।
सिद्धांत सब तरफ एक जैसे ही काम करते हैं। अच्छा बताओ इत्ते बड़े-बड़े ग्रह हैं वृहस्पति, शनि ये क्यों नहीं चंद्रमा के साथ चमकते हुए दिखते, इसलिए कि ये चांद से करीबी सैटिंग नहीं साध पाते । शुक्र ने साध ली, ये जो चमक है, यह चांद की चमचागिरी की चमक है-बच्चा तर्क कर रहा है।
नहीं तुम सौर –मंडल के सिद्धांत को समझने की कोशिश करो। इतने सारे ग्रह हैं, हरेक का रास्ता अलग-अलग है-मैंने उसे सौर-सिद्धांत समझाने की कोशिश की।
राइट, सबके रास्ते अलग हैं। जो बास के साथ नहीं आयेगा, उसको कोई नहीं पूछेगा। दूसरी तरफ जो ग्रह चांद तो छोड़ो, शुक्र ग्रह के करीब भी आ जाता, उसका फोटू छप जाता-बच्चे ने आगे फिर समझाया। छोड़ो, ये बताओ कि इस खगोलीय कांड से तुमने क्या वैज्ञानिक तथ्य समझे-मैंने फाइनली पूछने की कोशिश कर रहा हूं।
जी यहीं चमकने के लिए बास की या बास के खास के साथ सैटिंग जमानी चाहिए, वरना श्रद्धांजलि तक में फोटू ना आयेगा-बच्चा फाइनली बता रहा है।
आप ही बताइए, बच्चे को सौर सिद्धांत कैसे समझाया जाये।
आलोक पुराणिक मोबाइल-0-9810018799

Saturday, June 23, 2007

सैमसंग रोटी, एलजी दाल

सैमसंग रोटी, एलजी दाल
आलोक पुराणिक
इंडिया का बंगला देश
छुन्नू ढाबे के यहां मुन्नू रिक्शावाला शिकायत कर रहा है –पांच सालों में रोटी के भाव तीन गुने हो गये हैं- पचास पैसे से डेढ़ रुपये। हाफ प्लेट दाल की पांच से बढ़कर दस की हो गयी। सब तरफ महंगाई है।
नहीं, पांच साल पहले जो लैपटाप एक लाख का आता था, अब पचास हजार का मिल रहा है। पांच साल पहले जो मोबाइल दस हजार रुपये का आता था, अब पांच हजार का आ रहा है। भारी सस्ताई चल रही है-मैं मुन्नू रिक्शेवाले को आंकड़े बता रहा हूं।
पांच साल पहले भी सारी कमाई दाल-रोटी में खर्च हो जाती थी, अब भी सारी रकम दाल-रोटी में ही लग जाती है-मुन्नू आगे शिकायत कर रहा है।
देखो, तुम्हारी हैसियत है खरीदने की, तो तुम बिना दिक्कत के रोटी खरीद लेते हो, बढ़े हुए भावों पर भी। जो लोग लैपटाप और मोबाइल खरीदना चाहते हैं, उनकी हैसियत नहीं है, सो उनकी मदद के लिए लैपटापों, और मोबाइलों के भाव गिराना जरुरी है-मैं मुन्नू को समझाने की कोशिश कर रहा हूं।
पर इत्ते आइटम खरीदना जरुरी क्यों है-मुन्नू पूछ रहा है।
देखो, ना खरीदो तो तमाम बैंक वाले बुरा मान जाते हैं। इत्ते क्रेडिट कार्ड दे रहे हैं, इतने लोन दे रहे हैं, फिर भी खरीदते क्यों नहीं हो। इनके रोजगार का सवाल है। इसलिए कर्ज लेकर लैपटाप खरीदना पड़ता है-मैंने आगे समझाने की कोशिश की।
क्या ये बैंक बाप के इलाज के लिए कर्ज दे देंगे। गांव से लाकर इलाज करा लूंगा-मुन्नू ने पूछा।
नहीं छोटी कार से बड़ी कार पर जाने के लिए मिल जायेगा, पांच बैडरुम से दस बैडरुम पर जाने के लिए मिल जायेगा। पर बीमार बाप के पास जाने के लिए नहीं मिलेगा-मैंने समझाने की कोशिश की।
ऐसा क्यूं होता है-मुन्नू पूछ रहा है।
इस सवाब का जवाब दे पाऊं, इत्ता अर्थशास्त्र नहीं आता।
मनमोहन सिंहजी को आता है, पर वह फिलहाल कारों की सेल में आयी मंदी पर चिंतित हैं।
मुन्नू को मैं समझा रहा हूं-बेटा तेरे हिस्से में ही हैं सारे क्लेश, क्योंकि तू है इंडिया में बंगला देश।

इंडिया का अमेरिका
वैरी बैड, अब मोबाइल, लैपटाप में कुछ नहीं रहा। अब तो क्लर्क, चपरासी टाइप लोग भी मोबाइल लेकर घूम रहे हैं-मिस्टर गुप्ता मोबाइल के स्टेटस-डाऊनीकरण से नाराज हैं।
वैरी बैड अब मोबाइल, लैपटाप के कारोबार में कुछ रहा नहीं। बहुत कंपटीशन हो लिया है। मैकडोनाल्ड का काम बढ़िया है। आलू टिक्की को बेचकर अरबों खड़े कर रहे हैं-सैमसंग, एलजी कंपनी के अफसर झींक रहे हैं।
एक काम हो सकता है कि सैमसंग रोटी बाजार में उतार दी जाये और एलजी दाल भी। एक रोटी 1,000 रुपये की बेचेंगे। शाहरुख का इश्तिहार होगा-सैमसंग रोटी खाते हुए, प्रीति जिंटा एलजी दाल खा रही होंगी। दो रोटियों पर एक रोटी फ्री-यह स्कीम आफर कर देंगे-कंपनियों के अफसर रोटी-विमर्श कर रहे हैं।
मुझे कुछ इश्तिहार इस तरह के दिखायी दे रहे हैं-
मेरे भाई, दाल-रोटी में भारी सस्ताई, दो रोटी, एक कटोरी दाल यानी चार हजार का माल सिर्फ दो हजार में सेल, छूट, लूट, महाछूट।
पर इतना भी सब अफोर्ड ना कर पाये तो।
नो प्राबलम, सिटी बैंक की तरफ से हम रोटी लोन स्कीम शुरु कर देंगे, सिर्फ सोलह परसेंट इंटरेस्ट। ग्रुप रोटी लोन पर पंद्रह परसेंट का डिस्काउंट वाला इंटरेस्ट रेट लग जायेगा।
मन कर रहा है, मुन्नू रिक्शेवाले को बता आऊं कि भईये रोटी-दाल के मामले में भी सस्ताई, डिस्काउंट की खबरें आने ही वाली हैं।
नहीं क्या।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

Friday, June 22, 2007

पर्दा, मुगल, सीबीआई, अकबर, घोटाले और मर्द

पर्दा, मुगल,सीबीआई, अकबर, घोटाले और मर्द
आलोक पुराणिक
माननीया प्रतिभा पाटिलजी ने पर्दे को लेकर कहा है कि यह मुगलों से लड़ने के लिए शुरु किया गया था। आज हुई पत्रकारिता कोर्स की प्रवेश परीक्षा में पर्दे पर ही ललित निबंध लिखने के लिए कहा गया है। निम्नलिखित निबंध उस छात्र का है, जिसने ललित निबंध में सबसे ज्यादा नंबर हासिल किये हैं।
पर्दे का बहुत महत्व है, राजनीति में।
जैसे वाममोर्चा वाले असल में किसके सपोर्टर हैं और किसके विरोधी हैं, इस पर बरसों से पर्दा पड़ा हुआ है। कितने परसेंट सपोर्टर हैं और कितने परसेंट विरोधी हैं, इस पर भी पर्दा पड़ा हुआ है। वे कांग्रेस के सपोर्टर हैं और खुद अपने विरोधी हैं, ऐसा एक मत है। वे कांग्रेस के पचास परसेंट सपोर्टर हैं और पिचहत्तर परसेंट विरोधी हैं, ऐसा दूसरा मत है। वैसा यही बात भाजपा के बारे में कही जा सकती है। भाजपा वाले खुद के विरोधी हैं या कांग्रेस के विरोधी, यह भी पर्दे की बात है। रामविलास पासवान सच्ची में किसके सपोर्टर हैं किसके विरोधी हैं, यह बात तो हमेशा पर्दे में रही है। सो पर्दे का मामला इत्ती जल्दी सुलझने वाला नहीं है।
डिबेट दरअसल यह नहीं होनी चाहिए कि पर्दा कब शुरु हुआ था मुगलों के टाइम में, या पहले या उससे भी पहले। सवाल यह है कि पर्दा खत्म क्यों नहीं होगा।
समझने की बात यह है कि पर्दा प्रथा खत्म नहीं हुई है। तेलगी घोटालों को हालांकि किसी सुंदरी की संज्ञा नहीं दी जा सकती, पर इस पर पर्दा पड़ा हुआ है।
बोफोर्स घोटाला किसी सुंदरी का नाम नहीं है, पर इस पर भी पर्दा पडा हुआ है।
कतिपय नेतागण कहते हैं कि हया-शर्म का तकाजा यही है कि इस सब पर पर्दा पडा रहे।
सूचना के अधिकार के तहत इस पर्दे को खत्म करने की कोशिश कुछ लोग करते हैं। ये बेहया लोग हैं। बेहया सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं पाये जाते, और भी जगह पाये जाते हैं।
पर्दे के बारे में यूं तो कई फिल्मों में बताया गया है। पर बहुत विस्तार से अमर, अकबर, एंथोनी नामक फिल्म के एक गीत में बताया गया है कि पर्दा है पर्दा, पर्दे के पीछे पर्दानशीं है, पर्दानशीं को बेपर्दा न कर दूं, तो अकबर मेरा नाम नहीं।
घपलों के पर्दानशीं को बेपर्दा करने का काम सीबीआई का है।
पर सीबीआई अमर, अकबर, एंथोनी के गीत के फंडे पर काम करती है।
फिल्म के गीत में जिस परदानशीं को बेपरदा करने की धमकी अकबर उर्फ ऋषि कपूर दे रहे होते हैं, उसी के साथ सैटिंग-गैटिंग भी कर रहे होते हैं।
सीबीआई के बारे में यही कहा जा सकता है कि जिन परदानशीनों को बेपरदा करने में जुटी होती प्रतीत होती है।उनमें से आज तक बेपरदा कोई ना हुआ।
सो पर्दानशीनों मौज करो, जब तक धमकाने वाले सीबीआई वाले टाइप हैं, बेपर्दा होने का कोई डेंजर नहीं है।
पर जी हम बात तो हम पर्दे की कर रहे थे।
पर्दे का राजनीतिक महत्व तो हम स्थापित कर चुके हैं, अब हम इसके सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व पर बात करते हैं। अब तक करीब 7865 फिल्मों में दिखाया गया है कि हीरो बतौर तस्कर या तस्कर बतौर हीरो जब किसी खास मौके पर खास जगह से फरार होना चाहता है, तो वह बुरके-परदे का सहारा लेकर निकल लेता है। पुलिस कुछ नहीं कर पाती है (पुलिस वैसे भी कुछ नहीं कर पाती, पर यह विषय अलग है)। तो इस तरह से हम देखते हैं कि पर्दे का तस्करी में योगदान होता है और तस्करी का अर्थव्यवस्था का योगदान होता है।
तस्करी न होती, तो कई चीजें न होतीं। लाइफ की रंगीनियां न होतीं। ब्लैक इनकम और ब्लू फिल्में ना होतीं। ब्लैक इनकम नहीं होती, एक लाख के डिजाइनर कुर्ते कौन खरीदता। ये नहीं बिकते तो ना जाने कितने शो-रुम ठप्प हो जाते। ब्लैक इनकम न होती, तो धांसू-धमाल पार्टियां कैसे होतीं। पेज थ्री पार्टियां न होतीं, तो अख़बार वाले क्या छापते। अख़बार वाले पेज थ्री पार्टी ना छापते, तो पब्लिक कितनी बोर होती। पब्लिक बोर होकर नेताओँ की पिटाई भी कर सकती है। नेताओँ की पिटाई से देश में अराजकता फैलने का डेंजर है।
यानी देश को अराजकता के खतरे से बचाने के लिए जरुरी है कि पर्दे को कायम रखा जाये।
सीबीआई की अक्ल पर पड़े पर्दे को कायम रखा जाये। नेताओं के शठबंधन पर पड़े पर्दे को कायम रखा जाये।
वैसे पर्दे पर हमारे बुजुर्ग अकबर इलाहाबादी यह कह गये हैं-
बेपरदा नजर आयीं जो चंद बीबियां
अकबर जमीं में गैरते कौमी से गड़ गया
पूछा जो मैंने आपका पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं, कि अक्ल पे मर्दों की पड़ गया।
अब बताइए मर्द होने से सीबीआई वाले और नेता इनकार कर सकते हैं क्या।
ALOK PURANIK

Thursday, June 21, 2007

निधौंलीकला के भूत बनाम न्यूयार्क के भूत

निधौंलीकला के भूत बनाम न्यूयार्क के भूत
आलोक पुराणिक
मोबाइल बाबा का स्पेशल आफर चल रहा है-लोकल भूतों के रेट पर न्यूयार्क के भूतों की सेवाएं लीजिये। कनाट प्लेस में झक्कास इश्तिहार टंगे हैं।
फंडा एकैदम क्लियर है। प्रेमिका वशीकरण, मुकदमे में जीत, विदेश यात्रा, संतान, मकान का इंतजाम, पड़ोसियों के घर झगड़ा कराना, बास को पटाना, बास की गर्ल फ्रेंड के थ्रू प्रमोशन की फाइल बढ़वाना, टाप क्लास अभिनेत्रियों को सपने में लाना-अब ये सारे काम बहुराष्ट्रीय भूतों के जरिये करवाइये।
जब न्यूयार्क के भूत आपकी सेवा में हैं, तो निधौलीकलां के भूतों की सेवा क्यूं ली जाये।
भई बात में दम है। यहां के लोकल झक्कड़ बाबा के पास कौन से भूत होते हैं- यहीं के उखर्रा के, राजाखेड़ा के, बेहरुपाड़ा का। कित्ता तो इनका विजन होगा। और कितनी होगी इनके पास विश्वदृष्टि। किसी का माल पार करवाने इन्हे भेजो तो चालीस हजार रुपये की रकम में लार टपका दें, जबकि इत्ती रकम एक हजार डालर से ज्यादा की न होगी।
अब ग्लोबल विजन वाले भूत चाहिए।
जो मोबाइल बाबा के पास हैं-सिडनी के भूत, वेनिस के भूत, टोकियो के, न्यूयार्क के भूत।
अब साहब क्वालिटी का फर्क तो पड़ेगा ना।
लोकल काम लोकल इश्टाइल से होगा। लोकल भूतों की सेवा लो, ये मल्लिका सहरावत, प्रीति जिंटा को सपनों में ला सकते है। मोबाइल बाबा की सेवाएं लों, तो पामेला एंडरसन, लायन्स ब्रारा, तेनिंग्स कीटिंग को सपने में ले आयेंगे।
लोकल लोकल है, पामेला एंडरसन पामेला एंडरसन है। मोबाइल बाबा की सेवाएं लो, तो अमेरिकन भूतों के जरिये संतान सुख का इंतजाम होगा। क्या पता मामला इत्ता अमेरिकन निकल जाये कि अमेरिकी एंबेसी वाले वीसा देने में एकदम चिकचिक ना करें। भाई साहब आगे की देखकर चलना पड़ता है। बच्चे को अमेरिका सैटल कराना है, तो फिर अमेरिकन भूत की सेवा लेनी पड़ेंगी अभी।
अगर बच्चे का दाखिला टोकियो टेक्नीकल युनिवर्सिटी में कराना है, तो फिर जापानी भूत की सेवाएं लो। अगर बच्चे की कुंडली कह रही है कि बड़ा होकर कई स्विस खातों से खायेगा, तो अभी से ही एकाध स्विस भूत को सैट करके रखने में हर्ज नहीं है। सर जी, लोकल सपोर्ट सही रहता है।
और जी बास को पटाना है, तो फिर लोकल बास को क्या पटाना।
किसी टाप क्लास मल्टीनेशनल के न्यूयार्क के हेडक्वार्टर के चीफ या हेडक्वार्ट की चीफ को पटाना।
मकान का जुगाड़ करवाना तो क्या लोकल जुगाड़ना, किसी सिडनी के भूत से कह रखो कि भईया घेर ले प्राइम मिनिस्टर के बगल वाला घर।
और सुंदरी वशीकरण के मामले में क्या सीलमपुर की शीला को वश में करना, सीधे मैरीलैंड की मार्था पर रियाज किया जाये ना। यहीं से कुछ ऐसा भूतिया वशीकरण हो जाये कि न्यूयार्क की नैंसी वहीं से लिख कर भेज दे-आ जा संवरिया आ आ आ। बताओ फिर कैसे रोकेंगे अमेरिकन एंबेसी वाले।
वैसे भी अब लोकल की डिमांड कहां है।
मुझे लोकल भूतों से सहानुभूति हो रही है। यहां लोकल कोल्ड ड्रिंक को अमेरिकन कोल्ड ड्रिंक से पिटते हुए देखा था, पर यह न सोचा था कि भूतों की भी यही गति होगी।
मोबाइल बाबा के इश्तिहार देखकर तो लग रहा है कि अब भूतों में भी विकसित देशों के भूत और विकासशील देशों के भूतों के बखेड़े खड़े होंगे।
बड़े जोरदार सीन दिखायी पड़ रहे हैं-भूत लोक के।
जैसे ही कोई अमेरिकन भूत एंट्री लेता होगा, उसके भभके में अफ्रीकन भूत, इंडियन भूत जगह छोड़कर उठ जाते होंगे। यस सर, यस सर करने लगते होंगे। एक इंडियन भूत स्टाइलिश अंग्रेजी झाड़ने लगता होग-यस जी, आई एम कूमरपालसिंह फ्राम विलेज मौजी का खेड़ा, आई बाज बैरी गुड स्पीकिंग इंगलिश। प्लीज इनबाइट मी टू अमेरिका सर।
खैर, मोबाइल बाबा का कारोबार चल निकला है।
लोकल झक्कड़ बाबा, लक्कड़ बाबा बेरोजगार हो गये हैं, पूछ रहे हैं कि अमेरिकन भूतों के खिलाफ वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन में कंपलेंट की जा सकती है या नहीं।
चलूं पता करके आऊं, डब्लूटीओ में भूतों के मसले सुने जाते हैं या नहीं।
मोबाइल-09810018799

Wednesday, June 20, 2007

ऐसी-तैसीकरण के नये फंडे

ऐसी-तैसीकरण के नये फंडे
आलोक पुराणिक
इधर चिंतन किया है, पुराने टाइप के शाप कुछ आउटडेटेड हो गये हैं। जैसे पुराने टाइप के ऋषि किसी को शाप में खंभा बना देते थे, किसी को सांप बना देते थे। किसी को गंधर्व बना देते थे। मामला अब उलटा हो गया है। अब रास्ते में आये किसी खंभे से ऋषिवर नाराज हो जायें, तो वह शाप दे सकते हैं जा आदमी बन जा और निठारी में बतौर बालक तेरा अगला जन्म हो। या शाप दे दें या जा तू गाजियाबाद में इंसानी योनि में पैदा हो, जहां तू अपहरण, बिजली की अनुपस्थिति से बच जाये, तो चोरों की उपस्थिति से तेरी ऐसी-तैसी हो जाये। कतिपय ऐसे ही शाप किंवा बद्दुआओं पर इस खाकसार ने विचार किया है, जिन पर ऋषिगण भी विचार कर सकते हैं या सामान्यगण भी आपसी गाली-गलौज में इनका इस्तेमाल कर सकते हैं।
तेरे क्रेडिट कार्ड की लिमिट तब खत्म हो जाये, जब तू गर्ल फ्रेंड के लिए गिफ्ट ले रहा हो। प्रेमी जनों के लिए या प्रेम की शुरुआती राह पर चल रहे बंदों के लिए इससे विकट शाप कोई हो ही नहीं सकता।
तेरे मोबाइल का नेटवर्क तब ही ठप हो जाये, जब तेरी गर्लफ्रेंड फोन कर रही हो।
तेरे मोबाइल का नेटवर्क तब कभी भी ठप न हो, जब तेरी बीबी तुझे फोन पर डांट रही हो।
जब तुझे टीवी देखना हो, तो सारे चैनल ठप हो जायें। सिर्फ डीडी आये और उस पर कृषि दर्शन कार्यक्रम आ रहा हो।
तू जो भी चैनल खोलकर देखे, उस पर सिर्फ मनमोहन सिंहजी का भाषण आ रहा हो।
तू जिस कन्या पर लाइन मारने का विचार कर रहा हो, वह एक कन्या की मां निकले।
तू जिन्हे भावी समधी मानकर अपनी हैसियत के बारे-बारे में ऊंची हांक रहा हो, वो इनकम टैक्स के अफसर निकलें।
तू ऐसे ही मुंह दिखाने काबिल न रहे, जैसे वीरेंद्र सहवाग ।
जो घटिया चालू टाइप का एसएमएस तुझे तेरे फ्रेंड से मिला हो, वह गलती से तेरे मोबाइल से तेरी लेडी बास को एसएमएस हो जाये।
ट्रेन में जिस सहयात्री सुंदरी के साथ सफर सार्थक करने की तू योजना बना रहा हो, लालूजी की कृपा से उसका टिकट अपग्रेड हो जाये। वह थ्री टीयर से सेकंड एसी में चली जाये फिर तुझे अपने लेवल का ना मानकर देखने से भी इनकार कर दे।
तेरे चेहरे पर फिल्म कलाकार आलोकनाथ जैसे भाव परमानेंट हो जायें, सुंदरियां तुझे सिर्फ पिता मानें या बड़ा भाई।
और क्या जी, इनसे भी ज्यादा मारक बद्दुआएं और क्या हो सकती हैं जी।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799

Tuesday, June 19, 2007

धन दे मातरम्

धन दे मातरम्
आलोक पुराणिक
भाईजी नाराज थे, डांट रहे थे, क्या अगड़म-बगड़म विषयों पर लिखते हो, ट्रांसफार्मर से लेकर वाटर पार्क तक। अब कुछ सीरियस विषयों पर लिखो। उन्होने बताया, लिखो वंदे मातरम् पर।
साहब सोचा वंदे मातरम् पर।
बचपन में स्कूल में जब वंदे मातरम् गवाया जाता था, तब आंख खोलकर यह ताकते थे कि कौन नहीं गा रहा है। बाद में गुरुजी को बताते थे कि हम तो गा रहे थे, वो नहीं गा रहा था। बाद में बड़ा हुआ, तो पता लगा कि बड़े-बड़े भी यही कर रहे हैं। एक बार भाजपा वालों ने शिकायत कि हम तो गा रहे थे और लोग नहीं गा रहे थे। हम तो गा रहे थे देखो, सोनियाजी ने नहीं गाया। देखो, उनने नहीं गाया।
बचपन और बचपने में यही फर्क होता है। बचपन की उम्र होती है, बचपने की कोई उम्र नहीं होती।
बच्चों से कहता हूं कि वंदे मातरम् गाया करो रोज, तो हंसते हैं। कहते हैं गुरुजी पढ़-लिखकर अमेरिका जाना है। आप कहें, तो वंदे अमेरिकाम् कर लें।
और समझाओ, बच्चों को कि बेटे मातरम् यानी मां यानी देश को मां मानकर वंदन करना है। मदर इंडिया के बारे में सोचना है।
बच्चे और हंसते है, गुरुजी मदर इंडिया के बारे में सोचने का टाइम गया, अब तो मिस इंडिया के बारे में सोचने का वक्त है।
नेतागण वंदेमातरम् को अलग स्टाइल से समझते हैं। इसमें सुजलां, सुफलांम् का फंडा कई नेताओं को भरपूर समझ में आया है, पर दूसरे तरीके से। मेरे शहर में एक टाप क्लास पार्टी का मंझोले लेवल का नेता पानी का कारोबार करता है। उसकी कृपा से वाटर वर्क्स की सप्लाई कई मुहल्लों में नहीं आती, इन मुहल्लों में पानी वाले नेताजी के टैंकर रेगुलरली आते है। जल सप्लाई सुजलांम् में कैसे तबदील होती है, इन नेताजी को समझ में आ गया है। पब्लिक के लिए जब जल गायब हो जाता है, नेताजी का सुजलाम् हो जाता है। इसके सुफल आते ही आते हैं। पर सिर्फ नेताजी के लिए। वंदे मातरम् के फुल्ल कुसुमित को मामला तो बहुत कुंठित करता है। ईमान से कहूं, तो नयी पीढ़ी को फुल्ल कुसुमित का फंडा समझाने में शर्म आती है। जिस पीढ़ी को एक डंडीकट गुलाब खरीदने के लिए भी दस रुपये खर्चने पड़ते हों, वह प्रति फूल का मतलब दस के नोट से ही लगायेगी। जिसे कमाना आसान नहीं है।
अभी खबर पढ़ रहा हूं कि देश के 150 जिलों में नक्सलवाद प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर आ पहुंचा है, गन दे मातरम् का स्वर वहां से गूंजता प्रतीत हो रहा है।
अभी फिर एक नौजवान को समझाने की कोशिश की कि वंदे मातरम् यानी अपनी माता की वंदना करनी चाहिए, नौजवान अमेरिकन दूतावास जाने वाला था। वह बोला-माता का सम्मान कर सकते हैं, पर सेवा तो उसकी करेंगे, जहां से नोट मिलते हैं।
धन दे मातरम् -कहता हुआ नौजवान अमेरिका की सेवा करने चला गया।
वैसे क्या यही सच्चा राष्ट्रीय गीत नहीं है।
आलोक पुराणिक मोबाइल-0-9810018799

Monday, June 18, 2007

बिल गेट्स की एफआईआर

बिल गेट्स की एफआईआर
आलोक पुराणिक
दिल्ली के नेहरु प्लेस में हर भारतीय को एक बार जाना चाहिए। राष्ट्रीय गौरव की धाराएं एकदम फुल स्पीड से हृदय में हिलोरें सी लेती हैं(देखा, हृदय में हिलोरें में क्या अनुप्रास अलंकार साधा है)।
ओ जी अलंकार की बातें पुराने जमाने की बातें हैं, हम नये जमाने की बातें कर रहे हैं। मार्डनाइजेशन को समर्पित स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरुजी की आत्मा एकदम प्रसन्न हो जायेगी यह देखकर कि उनके नाम पर बने हुए इस प्लेस में एकदम मार्डनाइज्ड स्टाइल की चोरी चल रही है। बिल गेट्स जिस साफ्टवेयर को लाखों का बता कर बेचने की उम्मीद करते हैं, उसे हमारे कुछ भारतीय भाई डेढ़ सौ रुपये में बेच लेते हैं।
कास्ट इफेक्टिवनेस और क्या होती है जी।
बात दरअसल यह थी कि कई हजार रुपये लगाकर एक साफ्टवेयर की ओरिजनल कापी खरीदी थी। इंस्टाल करने की कोशिश की तो इत्ते रजिस्ट्रेशन नंबर, स्पष्टीकरण उस साफ्टवेयर की सीडी ने मांगे, जितने घर जल्दी आने पर पत्नी भी नहीं मांगती।
मैंने एक नेहरु प्लेसी एक्सपर्ट से समस्या की काट पूछी, तो इसने एक सीडी थमा दी। साहब एक झटके में साफ्टवेयर इंस्टाल हो लिया, एकदम सरपट, सर्र-सर्र टाइप।
फंडा क्लियर हुआ-चोरी का हाईवे एकैदम निरापद होता है, नो पासवर्ड, नो चेकिंग।
नियम-कानून से चलने वाले का रास्ता रोकने के लिए तरह-तरह के रजिस्ट्रेशन के बैरियर होते हैं।
यह बात सिर्फ सिर्फ साफ्टवेयर पर ही नहीं, हेयर एंड देयर भी लागू होती है।
पर अगर बिल गेट्स ने चोरी पकड़ ली तो सारे अंदर हो जायेंगे-मैंने शंका व्यक्त की।
अब बिल गेट्स झज्जर हरियाणा में आकर एफआईआर लिखाओगा कै-झज्जर से आये एक भाई ने स्पष्टीकरण सा सवाल पेश किया।
अहा क्या सीन खिंच रहा है, बिल गेट्स साफ्टवेयर चोरी की रिपोर्ट लिखाने हरियाणा के किसी थाने में गये हैं। संवाद कुछ इस टाइप के होंगे-
बिल गेट्स-जी मेरा विंडोज साफ्टवेयर चोरी हो गया है।
पुलिस-देख्खोजी, विंडो के पास कुछ्छ रखणा ही नहीं चाहिए।
बिल गेट्स- जी विंडोज साफ्टवेयर चोरी हो गया है।
पुलिस-साफ बता, कुण सा आइटम गया। बिल गेट्स-ये मेरे हाथ में सीडी है, इसका माल चोरी हो गया है।
पुलिस-अब्बै तू पुलिस ने बेवकूफ समझै के, तेरा माल तेरे हाथ में है, ओर तू कै रा कि चोरी हो ली।
बिल गेट्स-नहीं मतलब इसमें से किसी ने माल चुरा लिया।
पुलिस-अबे यो क्या कोई लाक्कर है कि पर्स है, जो माल पार कर लिया। तू साफ-साफ क्यों नहीं बोल रहा। अच्छा बता मौका-ए-वारदात क्या है। कित्ते बंदे आये माल चुराने। कोई सुबूत-ऊबूत छोड्डा कि नहीं।
बिल गेट्स-देखिये, इस तरह से सबूत नहीं होता। वो यह साफ्टवेयर सौ रुपये में बेच रहे हैं ।
पुलिस-अबे तो इसमें रोणै की कोण सी बात है, तू पिचहत्तर में बेचने लग, बौत ग्राहक आयेंगे।
बिल गेट्स-पर आप समझिये कि उन्होने मेरी सीडी चोरी कर ली है।
पुलिस-ल्लै, फिर वो ही, जब तेरी सीडी तेरे ही पास है, तो फिर चोरी कैसे हो ल्ली। समझा ना।
बताइए, बिल गेट्स कैसे समझाये।
आलोक पुराणिक-मोबाइल-09810018799

Sunday, June 17, 2007

आलोक पुराणिक की संडे सूक्ति-उधार प्रेम का फेविकोल है

आलोक पुराणिक की संडे सूक्ति-उधार प्रेम का फेविकोल है
आलोक पुराणिक
जी आपने तमाम जगह लिखा देखा होगा-उधार प्रेम की कैंची है।
पर अपना मानना है कि इस बयान में झोल है, दरअसल उधार प्रेम का फेविकोल है।
जरा सोचिये, उधार प्रेम की कैंची क्यों है, अजी उधार न हुआ, हेयर ड्रेसर का औजार हो लिया। यह गलत बात है।
उधार लेना एक कला है और कैंची का कला से कोई संबंध नहीं है। कैंची सबकी हजामत बनाती है, पर उधार हमेशा सबकी हजामत नहीं बनाता। लेने वाले के लिए तो उधार बिलकुल हजामतकारी सिद्ध नहीं होता।
पर असल मामला यह है कि प्रेम को उधार के साथ जोड़ने की क्या तुक है।
प्रेम प्रेम है, उधार उधार है।
हां, यह कतिपय मामलों यह संभव है कि कुछ प्रेमी उधारी में पड़ जायें।
विशुद्ध प्रेम के अलावा कुछ न करने वाले भी उधारी में डूब सकते हैं।
कुछ उधारी में तब डूबते है, जब वे पति होने के बाद पत्नी की स्विटजरलैंड में हनीमून, चार बैडरुम के फ्लैट, धांसू कार की मांग को पूरा करते हैं। पर इस उधारी की जिम्मेदारी प्रेम पर नहीं डाली जा सकत। शादी के पहले अगर ये सब हो, तो जरुर इस सबका जिम्मेदार प्रेम को ठहराया जा सकता है। पर शादी के बाद भी प्रेम बचा रहे, तो इसे अपवाद ही माना जायेगा, नियम नहीं।
तो मामला यह है कि किसी ऐतिहासिक उधारी की उधारी की जिम्मेदारी प्रेम पर कभी नहीं रही।
गालिब बहुत बड़े उधारबाज थे, पर उनकी उधारी प्रेम के लिए नहीं थी, दारु के लिए थी।
वैसे देखने वाली बात यह है कि प्रेम और उधार का अगर कोई उलटा-सीधा संबंध होता, तो जरुर विद्वानों की निगाहों में आ गया होता। प्रेम पर पांच सौ कुंतल लेखन हुआ है, पर किसी ने इसके साथ उधार का जिक्र नहीं किया। क्यों नहीं किया जी। कबीर ने लिखा-ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई। कबीर यह भी लिख सकते थे –हर हाल में उधार ले आये, सो ही पंडित होय। इससे साबित होता है कि कबीर प्रेम की महिमा से तो वाकिफ थे, पर उधार की महिमा के जानकार नहीं थे।
वैसे, जानकारों का कहना यह है कि प्रेम वाले को उधार की तमीज न हो, पर उधार वाले को प्रेम की तमीज जरुर होती है। किस वक्त किससे प्रेम करना है, इसका ज्ञान उधार लेने वाले को जरुर होता है।
वैसे कतिपय जानकारों का यह भी मानना है कि अगर उधार का लेन-देन मानव जाति में न होता, तो बहुत आफत हो जाती। कई धांसू फिल्में नहीं बन पातीं। मदर इंडिया कैसे बनती। न मदर इंडिया में साहूकार सुक्खी लाला होते, न सुक्खी लाला से नर्गिस-राजकुमार उधार लेते।न मामला आगे गड़बड़ होता, न राजकुमार की फैमिली बिगड़ती।
मदर इंडिया देखकर जो शिक्षा मिलती है, वह यह है कि उधारी से घर कोई घर भले तबाह हो जाये, पर फिल्म जरुर क्लासिक बन जाती है।
खैर साहब, मैं तो आपसे यह कह रहा था कि यह मुहावरा गलत है कि उधार प्रेम की कैंची है।
दरअसल मामला उलटा है। एक बार जिन्होने मुझे उधार दिया था, उनका प्रेम मेरे प्रति बहुत बढ़ गया था। मैं दफ्तर वालों की हड़ताल में शामिल हुआ तो समझाने आये। प्रेमपूर्वक समझाया-बेटा इधर-उधर की बातों में नहीं पड़ते। सीधे –सीधे चलते हैं। अभी तो तुम्हे जिंदगी में बहुत कुछ करके दिखाना है। अरे अभी तो तुम्हे मेरा उधार चुकाना है। सो मान जाओ, हड़ताल के चक्कर में ना पड़ो। इत्ते प्रेम से समझाया उन्होने ने कि मुझे लगा कि जिनसे भी प्रेम हासिल करना है, उन सबसे पहले उधार ले लेना चाहिए।
जिन्होने मुझे उधार दिया है, वो मेरी नौकरी-धंधे की चिंता बराबर करते रहते हैं।
करनी पड़ती है।
सिटी बैंक वाला आल दि बेस्ट बोलता है। बैंक आफ अमेरिका वाला बराबर हैपी न्यू ईयर, हैप्पी दीवाली बोलता है। होशियार हैं, समझते हैं कि अगर मेरी हैप्पी दीवाली होगी, तो ही उनके मोटरसाइकिल लोन और मकान लोन की किस्त चुक पायेगी। अगर मैंने उधार चुकता कर दिया, तो बताइए, ये मेरे हैप्पी होने की दुआ करेंगे। नहीं।
यानी उधार से प्रेम पक्का होता है।
प्रिय पाठक-पाठिकाओं, आपने मुझे बहुत प्रेम दिया है। मैं इस प्रेम को पक्का करना चाहता हूं।
आप बात को समझ रहे हैं ना। सो न्यूनतम एक -एक हजार तो भिजवा ही दीजिये।
समझ गये ना वही बात, जो शुरु में समझायी थी-प्रेम उधार की कैंची है-इस बयान में कुछ झोल है। सच तो यह है कि उधार प्रेम का फेविकोल है।
थोड़ा सा फेविकोल भिजवाईये ना।
आलोक पुराणिक मोबाइल-0981001879

Saturday, June 16, 2007

अब सस्ते में हारेंगे उर्फ हिट विकेटी-क्रिकेटीय फंडे

अब सस्ते में हारेंगे उर्फ हिट विकेटीय-क्रिकेटीय फंडे
आलोक पुराणिक
चंदू बोर्डे भूतपूर्व बैट्समैन जब पुणे स्थित अपने घर में पड़ोस के बूढ़ों के साथ जोड़ों के दर्द और धूप में चलने पर कमर में होने वाले दर्द की चर्चा कर रहे थे, तब ही इंडियन टीम उनके हवाले कर दी गयी।
लो जी अब जिन्हे खुद चलने में दिक्कत है, वह पूरी टीम को दौड़ायेंगे।
ग्राहम फोर्ड ने जब से मना की, तब से अपन तो बहुत खुश हैं राष्ट्रहित में। बोर्डे साहब के आने के कई फायदे हैं-
1-जी अब हारना सस्ता हो जायेगा। फोर्ड साहब मोटी रकम लेते, शायद पौंड में लेते। लो जी पौंड देकर हारते, अब सिर्फ रुपये देकर ही हारने के इंतजाम हो जायेंगे।
2-जब कोच विदेशी थे, तो कई लोगों ने आरोप लगाया था कि इंडिया की हार में विदेशी हाथ है। अब वह लफड़ा भी खत्म। हार में सिर्फ स्वदेशी हाथ होगा।
3-रवि शास्त्री, मदनलाल, कपिल देव को तसल्ली होनी चाहिए कि उन्हे 2050 में इंडियन क्रिकेट टीम का कोच बना दिया जायेगा। 2050 तक नहीं बने, तो 2080 तक तो बन ही जायेंगे।
4-सचिन तेंदुलकर को थोड़ी निराशा जरुर होगी, कोच बनने का उनका नंबर सन् 2050 तक नहीं आ पायेगा।
5-हां, इरफान पठान को तो अब कोच बनने का ख्वाब छोड़ देना चाहिए, और फिर सन् 2150 में कोच बन भी गये, तो क्या हो लेगा।
वैसे इस खाकसार का सुझाव है कि चंदू बोर्डे साहब की पीढ़ी के बंदों को सीधे टीम में खिलाना चाहिए। क्या कहा, इस उम्र में खेल नहीं पायेंगे। तो इस उम्र में अभी वाले ही कहां खेल पा रहे हैं।
चंदू बोर्डे के उम्र के बंदों को टीम में रखने के एक फायदा यह होगा कि ये ज्यादा टाइम और ध्यान खेल पर लगायेंगे, शायद इनसे टी-शर्ट, कैमरे, बनियान, साइकिल बिकवाने के लिए स्पांसर नहीं आयेंगे।
पूरी टीम ही कुछ इस टाइप की हो, सुनील गावस्कर, गुंडप्पा विश्वनाथ, अजित वाडेकर, श्रीकांत, सैयद किरमानी, बिशन सिंह बेदी, कीर्ति आजाद और जी नवजोत सिंह सिद्धू।
वैसे सिद्धू साहब के दूसरे इस्तेमाल भी हैं, प्रतिद्वंद्वी टीम को धमका दिया जाये कि अगर जीतने की जुर्रत की, तो एक कमरे में बंद करके बीस दिन सिद्धूजी के लतीफे सुनने पड़ेंगे।
डराने का काम सिद्धू साहब से अच्छा कौन कर सकता है।
और जो सिद्धूजी के लतीफों से भी ना डरे, उसे किसी भी चीज से नहीं डराया जा सकता।

आलोक पुराणिक
मोबाइल-9810018799

Friday, June 15, 2007

सोहनी-महीवाल की नयी प्रेमकथा उर्फ यूं डूबा महीवाल

सोहनी- महीवाल की नयी प्रेमकथा उर्फ यूं डूबा महीवाल
आलोक पुराणिक
एक समय की बात है सोहनी नामक एक कन्या दिल्ली शहर में रहती थी। महीवाल नामक युवक भी दिल्ली में रहता था। दोनों प्रात एक ही बस में सवार होकर काल सेंटर पर नौकरी करने जाते थे। टाइम काटने की गरज से दोनों में कुछ बातचीत होती थी, जिसे स्वाभाविक तौर पर महीवाल प्यार समझने लगा। उत्तर भारत में ऐसा आम तौर पर चलन था कि अगर कन्या किसी बालक को देख भी ले, या नहीं भी देखे, तो भी बालक समझने लगता था कि कन्या लाइन मार रही है। इस तरह की रोचक गलतफहमियों और काम-चलाऊ सेलरी के सहारे महीवाल दिन काटने लगा। रात काटने में समस्या तो यूं नहीं होती थी कि रात भर जागकर पानी भरना होता था। नल कब आयेंगे, इस विषय पर विचार करते –करते महीवाल की रात कट जाती थी।
खैर कहानी आगे बढ़ाते हैं।
सोहनी के पापा ने एक दिन सोहनी से कहा-बेटा तेरा समय निकला जा रहा है। सारे कायदे की इंडियन कन्याएं एक के बाद एक नान रेजीडेंट इंडियन हुई जा रही हैं, किसी न किसी एनआरआई से शादी करके। तू क्यों समय व्यर्थ गवां रही है। अमेरिकन वीसा के लिए एप्लाई कर दे, कोई फंस जायेगा, तो तू निकल जाना। सोहनी अमेरिकन एंबेसी गयी वीसा लगवाने के लिए, तो महीवाल भी उसके सिर पर छाता तानता हुआ गया, सोहनी को कहीं धूप न लग जाये।
सोहनी के पापा ने यह दृश्य देखकर पूछा कि ये छाता-तानक कौन है।
इस पर सोहनी ने बताया कि यह बैकअप प्लान है। अगर कोई अमेरिकन एनआरआई फंस गया, तो ठीक, वरना दूसरे विकल्प के तौर पर इसे भी रख लेते हैं।
सोनी के पिता विकट कंत्री आदमी थे, सो उन्होने हामी भर दी।
इसके बाद महीवाल ने सोहनी की तरह-तरह से सेवाएं कीं।
सोहनी घर से लंच लाती थी, लंच को और मजेदार बनाने के लिए महीवाल उसके लिए दफ्तर से तीन किलोमीटर दूर स्थित पप्पे के पनीर वाले छोले लाता था, एक किलोमीटर की लाइन में लगकर।
सोहनी कहती थी कि महीवाल से कि बास को खुश करने आजादपुर सब्जीमंडी से सस्ते आम ले कर आओ। महीवाल आम की पेटियां लाता था। उसका क्रेडिट सोहनी के खाते में दर्ज हो जाता था। सोहनी महीवाल से कहकर महंगी साड़ियां मंगवाती थी और उन्हे अपने भाई की फैक्ट्री की साड़ियां बताकर बास-पत्नी को गिफ्ट कर देती थी। इसका का क्रेडिट भी, जाहिर है, सोहनी के खाते में दर्ज होता रहता था। इस तरह से सोहनी से बास खुश होते रहे और सोहनी को इसका परिणाम यह मिला कि वह बार-बार विदेश यात्राओं पर जाने लगी।
ऐसी ही एक अमेरिकन यात्रा के दौरान सोहनी की सैटिंग एक एनआरआई से हो गयी।
सब कुछ सोहनी के हिसाब से चल रहा था, पर एक दिन सोहनी चिंता में डूब गयी।
दफ्तर में महीवाल उसकी इतनी सेवा कर रहा है, सबको पता था। महीवाल के एकाध मित्र टीवी चैनलों में भी थे। सोहनी को टेंशन हुआ कि कहीं महीवाल स्कैंडल खड़ा न कर दे, क्योंकि टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल वाले इस तरह के कार्यक्रम बना सकते थे-तू बेवफा,-मैं हूं खफा, मैं जान दे दूंगा, इश्क की रिस्क, मुहब्बत में महीवाल की मौत। स्कैंडल की आकांक्षा से सोहनी घबरा गयी।
सोहनी के बाप को पूरे मसले की जानकारी मिली, जैसा कि पाठकों, को पहले की बताया जा चुका है कि सोहनी के पापा विकट कंत्री टाइप आदमी थे।
सुबह, महीवाल को सोहनी के पापा ने बुलाया और पूछा-तुम सोहनी को प्यार करते हो।
महीवाल ने कहा-जी सर, बिलकुल।
सोहनी के पापा ने पूछा-कितना।
महीवाल ने घिसे हुए प्रेमी की तरह पिटा हुआ जवाब दिया-उसके लिए आसमान से तारे तोड़ कर ला सकता हूं।
नहीं बेटे, हमें तारे नहीं चाहिए। हमारे घरों के नलों में पानी नहीं आ रहा ह। कारपोरेशन से ट्रक आता है, उससे पानी खींच कर लाना पड़ता है। तुम अगर हमारे परिवार के लिए तीन दिनों तक उस ट्रक से पानी लाकर दिखा दोगे, तो मैं मान जाऊंगा कि तुम सोहनी को प्यार करते हो-सोहनी के पापा बोले।
महीवाल ने जोश में कहा-ओ यस।
अगले दिन महीवाल पानी लेने के कारपोरेशन के ट्रक आगे खड़ा हो गया, पांच घंटे लाइन में लगे रहने के बावजूद उसने देखा कि उसका नंबर अब भी बहुत दूर है। अचानक भगदड़ मच गयी और लोग पानी के लिए लूट मचाने लगे। महीवाल महीन तबीयत का नौजवान, सिर्फ खड़ा देखता रह गया, पानी लुट लिया।
आंखों में पानी भरकर महीवाल सोहनी के पिता से बोला-जी आज तो मैं पानी नहीं ला पाया।
देखो मुझे आंखों में नहीं, बाल्टी में पानी चाहिए-सोहनी के पापा बोले।
महीवाल अगले दिन फिर ट्रक से पानी लेने गया।
आज पानी पर ब्लैक हो रही थी।
चार बाल्टी पानी के एक हजार रुपये लग रहे थे।
महीवाल ने अपने सारे कपड़े,घड़ी बेचने का सौदा भी कर लिया, तो भी उसके पास एक हजार नहीं हुए।
महीवाल आज भी खाली हाथ लौटा।
सोहनी के बाप ने फोन करके पूछा-बेटा पानी का इंतजाम हो गया।
जवाब में महीवाल चुप रहा।
तीसरे दिन महीवाल शहर छोड़कर चला गया, इस शर्म में कि पानी का इंतजाम भी वह नहीं कर पा रहा है, तो आगे जाकर फैमिली चलाने के लिए और इंतजाम कैसे होंगे।
इस तरह से महीवाल पानी और शर्म में डूबकर मर लिया।
उधर सोहनी ने फुल धूमधाम से अमेरिकन एनआरआई से शादी कर ली और वह सुखपूर्वक रहने लगी। इस कहानी से हमें तीन शिक्षाएं मिलती हैं।
अगर आप महीवाल टाइप हैं, तो समझ लीजिये, पानी और शर्म के इक्वेशन में पानी का होना जरुरी है, शर्म न हो, तो भी चलेगा।
अगर आप सोहनी टाइप हैं, तो आपको बैक-अप प्लान रखने का महत्व समझ में आ गया होगा।
और अगर सोहनी के पापा टाइप हैं, तो क्या ही कहने। महीवाल को टहलाने की तरकीब आपको मिल ही गयी।
आलोक पुराणिक -
मोबाइल-09810018799

Thursday, June 14, 2007

होंडासा वांगाऊ जैंगारा हाजाचालं बाचमुलू के बवाल

होंडासा वांगाऊ जैंगारा हाजाचालं बाचमुलू के बवाल
आलोक पुराणिक
जी मैं पहले ही साफ किये देता हूं। मैं राष्ट्रपति पद के लिए कैंडीडेट एकदम नहीं हूं। इस बयान के बाद मैं समझता हूं कि प्रणव मुखर्जी, शिवराज पाटिल, अर्जुन सिंह, कर्ण सिंह, लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, भैंरोसिंह शेखावतजी और जो भी मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझ रहे हों, उन सबसे मेरी प्रतिस्पर्धा खत्म हो गयी है। और ये मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं।
यह सोचकर ही मेरा मन कांप हो उठता है कि मैं राष्ट्रपति हो गया हूं। हाय हाय कैसे तो कटेगी। अभी कुछ दिन पहले टीवी पर देखा, अफ्रीका के किसी गणराज्य के राष्ट्रपति को हमारे राष्ट्रपति रिसीव कर रहे थे, राष्ट्रपति भवन में। सिलसिला कुछ यूं चलता था कि अफ्रीकन राष्ट्रपति अपनी भाषा में कुछ कहते थे, फिर उनका दुभाषिया उसे अंग्रेजी में कुछ का कुछ बताता था। फिर उसे हिंदी में हम कुछ का कुछ समझते थे। हमारे राष्ट्रपति हर बार मुस्कुराते प्रतीत होते थे।
वार्तालाप यूं हुआ।
अफ्रीकन राष्ट्रपति-होंवागा, होंडासा वांगाऊ जैंगारा होटंकालु हाजाचालं बाचमकाम बाजावटच हमामाम।
दुभाषिया के कहे का हिंदी आशय-हमारे राष्ट्रपति कह रहे हैं कि भारत महान राष्ट्र है, हम भी महान राष्ट्र हैं। दोनों ही महान राष्ट्र हैं। इस बात को समझने में ही महानता है।
अफ्रीकन राष्ट्रपति-गंदाडामन हलामाचा तताबोलड सआबवोत लाजौलाड हौसाजाप, वाहफ ,वफाक वफाक।
दुभाषिया के कहे का हिंदी आशय-हम सब महान हैं. तो महानों की तरह की बातें करनी चाहिए। मैं राष्ट्रपति के महान टेस्ट की तारीफ करता हूं। उन्होने अपने यहां मुगल गार्डन में तरह-तरह के फूल लगा रखे हैं।
अब बताइए साहब, एक अफ्रीकन राष्ट्रपति तो आते नहीं हैं, वहां। रोज कोई न कोई आता ही है। सबकी इस तरह से सुनते रहे , तो मर जायेंगे। रात में भी कान में होंगाडा, जांबाला, खोंलाबू सुनायी देगा। इतनी महानता तो हम न झेल पायेंगे। राष्ट्र भले ही महान हो गया हो, हम तो क्षुद्र ही रह गये है ना। बल्कि हम तो अकसर ही पूछते हैं कि भई जो राष्ट्र महान हुआ है, वो है कहां। दिखायी नहीं पड़ता। हमें तो अपने यहां बिजली जाती हुई दिखायी पड़ती है। वैसे सुना है, बिजली तो राष्ट्रपति भवन में भी जाती है। और पानी राष्ट्रपति भवन में भी रेगुलरली नहीं आता है। तब ठीक है, इसका मतलब यह कि बिजली -पानी के मामले में राष्ट्रपति भवन राष्ट्र से जुड़ा हुआ है, एकैदम से मामला मुगल गार्डनात्मक नहीं हो लिया है।
साहब, मैं महान देश का अत्यधिक क्षुद्र नागरिक हूं, खालिस भारतीय आदतें हैं मेरी। अपने घर से बीस फुट आगे की जगह को पार्क या पार्किंग या फिर दोनों के नाम पर जब तक न घेर लूं, मुझे चैन नहीं पड़ता। अब जरा सोचिये, राष्ट्रपति भवन के बाहर मैंने बीस-बीस फुट जगह घेर ली, और पीडब्लूडी वालों ने मुझे नोटिस दिया और मैंने सरकार को गिराने की धमकी दे दी, तो संवैधानिक संकट हो जायेगा ना। नहीं, हम तो खुद के लिए ही संकट हैं, संवैधानिक संकट की वजह नहीं बनना चाहते।
और फिर मैं तो और तरह की बातें सोचकर डर जाता हूं, सुना है राष्ट्रपति बनने के बाद कोई दिक्कत नहीं होती। बिजली का बिल एकदम ठीक आता है। फोन के बिल वाले भी हर बार पांच-सात सौ रुपये एक्स्ट्रा लगाकर नहीं भेजते। हाय हम पूरे दिन करेंगे क्या। अभी तो एक दिन बिजली का बिल सही कराने जाते हैं। लोकल दफ्तर वाला ऊपर भेज देता है। ऊपर वाला और ऊपर वाला भेज देता है। एक हफ्ता इसी में कट लेता है। फोन के बिल का भी यही हिसाब है, एक बंदा कहता है कि उस दफ्तर चले जाओ। वहां बताया जाता है कि नहीं जी बिल तो आपका पचास हजार का है, पर आप सिर्फ पच्चीस हजार पर सैटल कर लो। दस हजार रुपये में सैटलमेंट के लिए तो आपको ओखला जाना पंडेगा। जी एकाध हफ्ता तो इसमें कट लेता है। इतने बवाल रहते हैं कि लाइफ कटी जा रही है। इन सारे बवाल न रहें, तो जियेंगे कैसे।
खैर साहब, सबसे महत्वपूर्ण मसला यह है कि वैवाहिक जीवन खतरे में पड़ जायेगा। पत्नी का कहना है जब तुम बिजी रहते हो, तो तुम झगड़ा नहीं करते। चाय-पानी-खाना तुम्हे सब ठीक लगता है। जिस दिन तुम खाली रहते हो,उस दिन बेहतर चाय बनाने की तकनीक सिखाने लगते हो।
बात सही है, कई विवाह इसीलिए चल रहे हैं कि दोनों के पास झगडने का टाइम नहीं है।
मैंने भी नोट किया है, जब पत्नी बिजी होती है, तो सब नार्मल होता है। पर जब फ्री होती है, तो जरुर टोकती है-मोबाइल पर किससे इतनी पोलाइटली बात कर रहे थे, हम से तो नहीं करते इतनी अच्छी तरह से बात।
तो साहब, दिन भर खाली हुए,तो वैवाहिक जीवन खतरे में पड़ जायेगा।
ना मुझे नहीं बनना राष्ट्रपति।
आलोक पुराणिक
मोबाइल-0-9810018799

Wednesday, June 13, 2007

थोथा चना, बिकता घना

थोथा चना, बिकता घना
आलोक पुराणिक
पुरानी कहावतों के नये मतलब हो गये हैं जी। बच्चों से बात करो तो पता चलता है। क्लास में मैंने पूछा-बच्चों बताओ थोथा चना, बाजे घना का क्या मतलब है।
एक बच्चे ने बताया-सर, इसका मतलब है कि घना बजाना हो, या फुलमफुल चारों तरफ अपना जलवा कायम करना हो, थोथा होना जरुरी है। वरना मामला घना नहीं होगा।
पर बेटा, घना होने के लिए थोथा होना क्यों जरुरी है-मैंने आगे पूछा।
देखिये, तमाम टीवी चैनलों के एक्सपर्टों को देखो। एक झटके में सिक्योरिटी एक्सपर्ट से लेकर राखी सावंत एक्सपर्ट हो जाते हैं। दोनों के मामले में एक से बयान जारी कर देते हैं-हमें स्थिति पर नजर रखनी चाहिए। अब सिक्योरिटी को राखी सावंत की तरह से ट्रीट करना हो, तो एक्सपर्ट का थोथा होना जरुरी है। थोथे न हों, इतनी सारी एक्सपर्टाईज कैसे दिखायें-बच्चे ने बताया।
भारी चना, कोई पूछे ना-यह नयी कहावत हो सकती है।
चना भारी होगा, तो बजेगा कैसा। बजेगा नहीं, तो बिकेगा कैसे।
एक और कहावत पर चर्चा हुई-चोरी और सीनाजोरी।
इसका भावार्थ एक होनहार ने यूं किया-सीनाजोरी करनी हो, तो चोरी करके ही करनी चाहिए। बल्कि सीनाजोरी का हक चोरों को ही हासिल है। यानी किसी घोटाले में करोड़ों का जुगाडमेंट करने के बाद नैतिकता पर प्रवचन करना चाहिए, जो आपत्ति करे, उस पर मानहानि का मुकदमा कर देना चाहिए। ऐसे केस में मान बचाने वाले वकील महंगे आते हैं।
बगैर चोरी के जो सीनाजोरी करता है, उसके लिए आफत है।
पर चोरी के बाद सीनजोरी की जरुरत क्या है।
फिर चोरी के बाद क्या किया जाये-मैने पूछा।
चोरी के बाद और चोरी और फिर नेतागिरी-छात्र ने बताया।
सो साहब नया मुहावरा कुछ यूं बना-चोरी और नेतागिरी।
एक तो करेला, उस पर नीम चढ़ा-इस कहावत पर चिंतन शुरु किया।
करेला क्या होता है-बच्चे ने पूछा।
बेटा करेला यानी एक किस्म की वेजिटेबल-मैंने बताया।
सर, वैरी बैड, वेजिटेबल के एक्जांपल से पढ़ायेंगे। हर हम सब अरबपतियों के बच्चे नहीं हैं। सर वेजिटेबल हम कैसे अफोर्ड कर सकते हैं। आप कुछ रीयल टाइप के एक्सांपल्स के साथ पढ़ाईए ना-बच्चे आपत्ति कर रहे हैं।
बेटे, बात समझने की कोशिश करो। समझने के लिए समझो कि वेजिटेबल के साथ हम रोटी खाते हैं-मैंने समझाने की कोशिश की।
जी रोटी क्या होती है। आप अंगरेजी के शब्द क्यों यूज करते हैं। हिंदी में समझाइए ना। -बच्चे ने आपत्ति की।
समझो रोटी यानी ब्रेड यानी जो आटे से बनती है। आटा यानी जो गेहूं से बनता है-मैंने आगे समझाया। ओह यानी आटा वही जिसके भाव एक साल में सेनसेक्स से ज्यादा उछल गये हैं। देखिये सर आप हिंदी की क्लास में शेयरबाजी की बातें समझा रहे हैं। गलत बात है-बच्चा आपत्ति कर रहे हैं।
करेला छोड़ो, अब समझो नीम चढ़ा। नीम समझते हो ना, नीम यानी ट्री-मैंने आगे समझाने की कोशिश की।
पर ट्री होते ही कहां हैं, हमने अपने घर के आसपास ट्री देखे ही नहीं हैं। फिल्मों में दिखते हैं कभी-कभी। सर आप प्रेक्टीकल एक्जांपल्स के साथ समझाइए ना। जैसे हमने नेता देखे हैं, नेताओँ के जरिये इस कहावत को समझाइए ना-बच्चा फिर कह रहा है। ओ के एक कहावत यूं हो सकती है-एक तो तस्कर, उस पर एमपी बना। हम सिर्फ भाजपा सांसद बाबू भाई कटारा की बात नहीं कर रहे हैं।
यस, यह एकदम समझ में आ गयी। ऐसे ही समझाया कीजिये-बच्चों की समझ में आ गयी है।
एक और कहावत पर चर्चा निकली-कहीं गधा भी घोड़ा बन सकता है क्या।
बताओ, इसका मतलब क्या-मैंने पूछा।
जी पहले बताइए कि फायदा क्या बनने में है-गधा य़ा घोड़ा-एक बच्चा पूछ रहा है।
बेटा बात फायदे नुकसान की नहीं है। कहावत समझो ना-मैंने समझाने की कोशिश की।
नहीं, पहला सवाल यही है कि फायदा क्या बनने में है। सारे सवाल इस सवाल के बाद ही शुरु होते हैं-बच्चा अड़ गया है।
नहीं बेटा, फायदा की बात नहीं है। गधों का रोल अलग है, घोड़ों का काम अलग है। दोनों को कनफ्यूजन न करो-मैंने समझाने की कोशिश की।
नहीं सर यह बताइए कि अगर चुनाव हों, तो वोट किनके ज्यादा होंगे, गधों के या घोडों के-बच्चे ने पूछा।
मैंने गुणा-भाग करके बताया-गधों के।
तो फायदा गधा बनने में है। फिर कहावत को उलटा करो-घोड़ा भी कहीं गधा बन सकता है क्या।
सहमत होने के अलावा कोई और रास्ता है क्या।
आलोक पुराणिक मोबाइल-9810018799

Tuesday, June 12, 2007

पानी रे पानी तू अश्लील कैसा

पानी रे पानी तू अश्लील कैसा
आलोक पुराणिक
अखबार में फोटू छपी है-वाटर पार्क में कुछ बच्चे और बड़े किल्लोल कर रहे हैं। पांच सौ रुपये फी मेंबर जेब में हों, तो कैसी भी पानीविहीनता में झमाझम वाटर आ जाता है और पार्क भी।
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, नोट न हों, तो सूखे नल जैसा और जेब भरी हों, तो वाटर पार्क जैसा।
सूखे हुए नलों के बीच वाटर पार्क का फोटू वैसा ही अश्लील लगता है, जैसे कालाहांडी में भूख से कुपोषितों की फोटो के साथ किसी तोंदू नेता का फोटू, जैसे दो रुपये का दूध रोज ना पी पाने की असमर्थता और विटामिन ए की कमी से अंधे हुए बच्चों की खबर के साथ 2000 रुपये के धूप के चश्मे का इश्तिहार।
अश्लीलता सिर्फ नंगे फोटुओं में नहीं होती, वाटर पार्क भी अश्लील लग सकते हैं।
खैर बात पानी की हो रही थी। पानी सताऊ माशूक या माशूका की तरह हो लिया है आने का पता नहीं, जाने का पता नहीं।
इंतजार का मतलब क्या होता है। विरह क्या होता है। शबे-इंतजार क्या होती है, गमे-इंतजार क्या होता है, ऐसे ठेठ शायराना मसले भी पानी के जरिये समझे जा सकते हैं।
गालिब न इंतजार में नींद आयी उम्र भर
आने का अहद कर गये, आये वो ख्वाब में
शायरी के छात्रों से कहा जा सकता है कि पानी का इंतजार करके वे गमे-इंतजार की इंटेसिटी समझें।
इस शेर का भावार्थ यह भी हो सकता है कि गालिब पूरी जिंदगी पानी की समस्या से परेशान रहे। दिल्ली के जल निगम वाले गालिब से वादा कर जाते थे कि नल में पानी आयेगा। पर पानी नहीं आता था और जल निगम के बंदे सिर्फ ख्वाब में आते थे।
बड़ा टेढ़ा मामला है साहब। पड़ोस का बंटी बता रहा है कि घर वालों ने रात में जग कर नल से पानी भरने की उसकी ड्यूटी लगा दी है। रात में पता नहीं, नल कब आकर चले जायें। बंटी बता रहा है कि जी अब तो सपने में भी सिर्फ पानी आता है, क्योंकि अगर घर में पानी नहीं आया, तो आधा किलोमीटर दूर के हैंडपंप से पानी लाने की ड्यूटी भी बंटी की लगेगी।
जिस उम्र में कुछ और सपने आने चाहिए, उस उम्र में सूखे नल के सपने आ रहे हैं।
बढ़िया है। हम रोटी, कपड़ा और मकान के सपनों से शुरु हुए थे।
अब पानी भी सपना हो गया है।
सारे सपने पानी-पानी हो रहे हैं।
पानी फिर भी दिखायी नहीं दे रहा है।
मैं सोच रहा हूं कि अगर भगवान कृष्ण अब के टाइम में होते, तो रासलीलाओँ की कहानियां न होतीं, कहानियां कुछ और होतीं। एक इस तरह की हो सकती थी-
श्रीकृष्ण खड़े हुए हैं वृंदावन के कुंजों में, प्रतीक्षारत कि गोपियां आयें, तो तदनंतर रास का कार्यक्रम शुरु हो। रात्रि के बारह बजे, एक बजे, फिर दो बजे, फिर चार बजे, फिर पांच बजे, भगवान भास्कर के उदित होने का समय। श्रीकृष्ण निराश होकर कुंज से वापस जा रहे हैं।
अगले दिवस वृंदावन के माल रोड पर दोपहर में भ्रमण करते हुए एक गोपिका दिखायी पड़ती है, एक अत्यधिक ही बड़ी सी टंकी क्रय करते हुए।
हे गोपिके, कल रात्रि रास हेतु क्यों नही आयीं-श्रीकृष्ण पूछ रहे हैं।
हे कान्हा, रात्रि भर जागकर पानी के संग्रह का प्रयास करना पड़ता है। दिवस भर तो नल आते नहीं हैं। रात्रि में किस घड़ी में नल किंचित सा जल टपका जायेंगे, यह किसी को पता नहीं होता।
जब जल की सप्लाई रेगुलरली होती थी, तब रात्रि में परिवार के समस्त सदस्य सोते थे, तब चुपके से पतली गली से निकल कर आना संभव होता था। अब तो रात्रि में पानी के संचय के लिए परिवार के समस्त सदस्य प्रतीक्षारत और चेष्टारत होते हैं। ऐसे में चुपके से घर से निकलकर आना और रास रचा पाना संभव नहीं है-अर्धनिद्रित गोपिका ने अपनी व्यथा कही।
यही बात गोपिका नंबर दो, तीन, चार और................ने कही।
इतनी गोपिकाओं के लिए पानी का इंतजाम करने में असमर्थ, रास कार्यक्रम आयोजित करने में विफल श्रीकृष्ण इतना परेशान हो गये कि वह मथुरा-वृंदावन से सुदूर द्वारिका पलायन कर गये।
श्रीकृष्ण के द्वारिका गमन के मूल में कुछ और नहीं बल्कि सूखे नल ही थे।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799