आलोक पुराणिक
बताओ अहमद शाह अब्दाली दिल्ली पर चढ़ाई करने में सफल क्यों हो गया।
क्योंकि जीटी करनाल रोड पर उन दिनों ट्रेफिक नहीं होता था। अब का सा टाइम होता, तो ट्रेफिक में फंस जाता। ना दिल्ली की तरफ बढ़ पाता, ना पीछे की और जा पाता।
भिखारी भीख मांग-मांगकर परेशान कर देते। ट्रेफिक जाम के चक्कर में खीरे वाले खीरे के भाव बढ़ा देते। खीरे खरीदने में ही लूट का सारा माल खत्म हो लेता।
फिर भी ट्रेफिक नहीं खुलता। पता चलता कि आगे बीचों-बीच सड़क पर एक ट्रक खराब हो गया है। ट्रक के पुरजे लेने के लिए ड्राइवर करोलबाग दिल्ली गया है, पैदल। परसों लौटेगा।
मार ट्रेफिक की झाऊं-झाऊं में ही नादिर शाह की सेना दम तोड़ देती।
बड़े-बड़े युध्दवीर भारतीय ट्रेफिक से परास्त हो जाते।
ट्रेफिक अपने आप में युध्द सा है जी।
देखिये किसी सुबह या शाम, कैसे कतार में कार वगैरह एक के बाद खड़े होते हैं। मानो कहीं युध्द के लिए प्रयाण हो रहा हो। वैसे ट्रेफिक का मामला इधर से गौर से देखा, तो बहुत बातें नजर आयीं। इधर हुआ यूं कि आगरा स्थित एक मित्र ने लव मैरिज की और दिल्ली स्थित एक मित्र ने भी लव मैरिज की। छह महीने बाद आगरा से लडाई-झगड़े के समाचार आने लगे। दिल्ली शांत थी।
पूछताछ की तो पता चला कि पति महोदय तो दिल्ली से गुड़गांव नौकरी करने जाते हैं, और पत्नी करीब चालीस किलोमीटर ड्राइव करके जाती है।लड़ाई-झगड़े का सारा कोटा दोनों रास्ते में अलग -अलग निपटा कर लौटते हैं।
आगे की कार वाले को गालियां, पीछे की कार वाले की गालियां। उस बंदे को सामूहिक गालियां,जिसकी कार सड़क के बीचों-बीच पंक्चर हो गयी हो।
मुझे लगता है कि बुश इतनी गालियां साल भर में भी नहीं खाते होंगे, जितनी गालियां बीच सड़क में खराब कार का मालिक खाता है।
जिसे सहनशीलता बढ़ाने का कोर्स सिखाना हो, उसकी कार खराब करके सड़क के बीचों-बीच खड़ा कर दो। सारा हेकड़ी फरार हो जायेगी।
मार हार्न पे हार्न। रास्ते में इतनी मार-धाड़ हो लेती है कि घर पर चाऊं-चाऊं के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती।
यह ट्रेफिक का सकारात्मक पक्ष है। घरों में शांति इसलिए है कि बंदा निचुड़ कर लौटता है, अब झगड़ा कैसे हो। संडे को झगड़े का टाइम मिलता है, तो बंदा उसमें पड़ोसियों से झगड़े कि घर वालों से। जिन शहरों में ट्रेफिक ज्यादा होता है, उन शहरों में घरों में शांति रहती है।
ट्रेफिक बढ़ता है, तो बंदों में कोलंबस प्रवृति बढ़ती है, वो नये-नये इलाके ढूंढ़ते हैं। एक बार मैंने दिल्ली में एक जगह कार पार्किंग की ठीया तलाशने की कोशिश की और वह तलाशने की कोशिश में चलता गया, चलता गया, बाद में मुझे पता लगा कि मैं बीकानेर के आसपास हूं।
भविष्य में बंदे इस लपेटे में नये द्वीप या नये महाद्वीप तलाश सकते हैं।
नया इतिहास यूं लिखा जायेगा-होनोटूंबू महाद्वीप किसने खोजा था।
आलोक पुराणिक ने, पार्किंग स्पेस की तलाश में वह बहुत दूर, बहुत दूर, बहुत ही दूर निकल गये, वहां नया महाद्वीप मिल गया जी।
9 comments:
ये क्या बात हुई? कहानी तो कुछ यूँ होगी, एक वीर, साहसी और दूरदर्शी आलोक पुराणिक होनोटूंबू की तलाश में अपने घर से निकला, लेकिन ट्रैफ़िक में फंस गया.
बिल्कुल. ये अनुराग जी सही कह रहे हैं. हर महान काम आलोक के माध्यम से थोड़े ही होना है दुनियां में. :)
होनोटूंबू महाद्वीप किसने खोजा था।
आलोक पुराणिक ने--बहुत अच्छी उड़ान भर ली. अब थोड़ा आराम करें और अनुराग को सुनें और बाकि के लिये ज्ञानदत्त जी को. :) हम का कहे ज्ञानियं के सामने. चुप्पई चाप हैं.
हम भी जब कहीं नहीं पहुच पाते हैं तो कह देते है कि ट्रैफिक में फंस गये जी.
सही है। लगता है यह लेख भी किसी जाम में फ़ंसे लेखक ने लिखा है।
भाई साहब पता है मैं जबलपुर से पार्किंग खोजते खोजते चला गया । चलता गया । चलता गया । पता चला कि मुंबई पहुंच गया हूं । फिर पे एंड पार्क मिल गया । अपुन का गाड़ी परमानेन्ट पार्क हो गया है । इधर मुंबई में होनूटंबू महाद्वीप बहुत सारे हैं ।
किसी कॊ आलोक जी की खबर मिले तो हमे बताये,हम गुरुजी की गाडी मे टैफ़िक मे फ़से है और वो पैदल ही पार्किंग खोजने गये है..थॊडई देर और ना आये तो हम गाडी सहित अपने घ्र की राह लेगे,अब ऐसे तो छॊड कर नही ना जा सकते है.
गुरु ये रचना ऐसे बखत में पढ़ रहे हैं कि बस जाम में फ़ंसे है कि ना आगे बढ़ पा रहे ना ही पीछे जा पा रहे है, बस मजबूरी में का करें इहै पढ़ रहे हैं बस!
हिन्दि मे खोज!
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हिन्दि खोज अपका सैटु के लिये!
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