आलोक पुराणिक
(कल आपने पढ़ा कि किस तरह प्रख्यात पूड़ी
पर साहित्य प्रेम यूं ही कहां जाता है साहब।
अरे यह तो बताना रह ही गया कि फत्तेमलजी की दुकान का नाम ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला क्यों पड़ा।
हुआ यूं साहब, कि फत्तेमल के पिताजी के गांव उखर्रा से जग्गोप्रसाद जी आगरा आये और उन्होने खोला उखर्रा पूड़ी सेंटर। दुकान चल निकली, जग्गोप्रसाद जी अपनी सफलता को कुछ यूं बताते थे कि-बड़े शहरों में लेडीज लोग घर में सिर्फ कलेश करती हैं, खाने-पीने का काम बाहर करती हैं।
कलेश बढ़ता गया, पूरी का कारोबार बढ़ता गया।
जग्गोप्रसादजी के उखर्रा स्थित एक पड़ोसी ने आगरा जाकर ठीक उनकी दुकान के बगल में दुकान खोली-डबल उखर्रा पूड़ी सेंटर।
जग्गोप्रसादजी के पड़ोसी भी कालांतर में जग्गोप्रसादजी की उस स्थापना से सहमत हुए कि बड़े शहरों में लेडीज लोग घर में सिर्फ कलेश......।
वह भी चल निकला। वह भी जग्गोप्रसादजी की स्थापना से सहमत हो गये।
खैर, साहब बात मैं आपको यह बता रहा था कि मुझे ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला सम्मान मिला है।
फत्तेमलजी से मेरा परिचय तब का है जब मेरे घर वालों ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया था-कुसंग के आरोप में। तब मैं भी आधुनिक कवियों की सोहबत करता था। फत्तेमलजी मुझे पूड़ी खिलाते थे और मैं उनके बही-खाते देखा करता था। फत्तेमल आश्वस्त थे कि कोई कवि टाइप आदमी खातों में घोटाला कर नहीं सकता था। इसके पीछे उनकी थ्योरी यह थी कि खातों में घोटाला करने के लिए जितनी अक्ल की जरुरत होती है, उतनी भर कवि के पास होती, तो सुसरा कवि काहे को बनता।
खैर, साहब मुझे सम्मान जिस समारोह में मिला, उसमें फत्तेमल ने अपना भाषण कुछ यूं पढ़ा-
-आलोक पुराणिक को ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला सम्मान देते हुए हमें हर्ष है कि पूड़ियों की परंपरा में
आलोक पुराणिक की प्रतिभा को हमने पहचान लिया था, जब इनके घरवालों ने इन्हे घर से बाहर निकाल दिया था, तब उन्हे सहारा किसने दिया, पूड़ी ने। साहित्य के इतिहास में यह बात दर्ज होनी चाहिए कि जब साहित्य लड़खड़ाया है, या साहित्यकार लड़खड़ाया है, उसे किसने सहारा दिया है पूड़ी ने। आलोक पुराणिक ने हमारी दुकान की पूड़ियां खाकर जो लिखा है, वह आपके सामने है। वैसे हमारी दुकान की पूड़ियां भी आपके सामने हैं- एकदम खस्ता, करारी, ताजी, एक बार सेवा का अवसर जरुर दें।
खैर जी मैं तो पहले ही पहचान गया था कि आलोक पुराणिक बहुत बड़े लेखक बनेंगे, तब ही जब ये हमारी दुकान पर पूड़ी खाते थे, खाते-बही संभालते थे और कभी-कभार कड़ाही से पूड़ियां छानकर निकालते भी थे। आज आलोक पुराणिक को याद हो न हो, एक दिन जब ये पूड़ियां छान रहे थे, कुछ पूड़ियां ऊपर थीं, कुछ नीचे थीं। मैंने इनसे कहा, देख लो वो नीचे वाली पूड़ी फाइनली छुन्न से एकदम ऊपर आ जायेगी। इन्होने आश्चर्यचकित होकर पूछा-आपको कैसे पता। तो मैंने बताया कि ऐसे ही थोड़े ही छान रहे हैं इतने सालों से पूड़ी। पूड़ी छानने से वह अंतर्दष्टि पैदा हो जाती है, कि बंदा यह तड़ लेता है कि कौन सी पूड़ी ऊपर आयेगी और कौन सा लेखक छुन्न से ऊपर आ जायेगा। आलोकजी ने बाद में मुझसे कई बार कहा-फत्तेमलजी आप तो हिंदी साहित्य की आलोचना में आ जाओ, बहुत भला होगा। पर पूडियों ने फुरसत नहीं दी मुझे। हां कोई विश्वविद्यालय बतौर गेस्ट लेक्चरर बुलाना चाहे और पूड़ीकला और आलोचना के संबंधों पर मैं बोल सकता हूं। यहां मैं यह कहना चाहूंगा कि पूड़ी संसार का कोई भला इस कदम से भले ही न हो, पर साहित्य आलोचना का भला जरुर हो जायेगा।
आखिर लेखन है क्या, पूड़ी छानने जैसा ही काम तो है।
लेखन प्लाट जुटाता है, पूड़ीवाला आटा जमाता है। लेखक घुमाता है पाठकों को, स्टोरी को, पूड़ी वाला बेलन घुमाता है पूड़ी के आटे पर। मुझे बताया गया है लेखन तपता है कि अनुभव की आग में, पूड़ी तपती है गैस सिलेंडर की आग में। कुछ लेखक नीचे ही रह जाते हैं, कुछ पूड़ियां भी नीचे रह जाती हैं। कुछ लेखक एक झटके से उछल कर सबसे सामने आ जाते हैं, जैसे एकाध पूड़ी उछलकर कड़ाही से बाहर आ जाती है। पूड़ी छानने वाला चाहे तो किसी पूड़ी को अपने आप उठाकर ऊपर ले आता है। जैसे कोई आलोचक चाहे तो अपने गुट के राइटर को उठाकर ऊपर ले जाये। पूड़ी वाला चाहे तो किसी पूड़ी को कच्चा कह कर बाहर रख सकता है, आलोचक भी किसी राइटर को कच्चा घोषित करके एकदम बाहर घोषित कर सकता है। तो इस तरह से हमने देखा कि पूड़ी और लेखन में बहुत कुछ समानता है।
खैर साहब पुरस्कार तो मिल गया है मुझे, पर एक मसला और यह है कि सत्तोमलजी कबाड़ी जी ने संदेश भिजवाया है कि वह भी मुझे सम्मानित करना चाहते हैं। पर उनकी शर्त यह है कि पूड़ी सम्मान की परंपरा में मुझे पुरस्कार भाषण में लेखन और कबाड़ में समानता स्थापित करनी होगी।
समानता है, मैं जानता हूं। पर साहब खुले आम दिन दहाड़े कैसे स्थापित करूं।
आलोक पुराणिक एफ-1 बी-39 रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011
मोबाइल-09810018799
12 comments:
फत्तेमल तक तो ठीक था. पूड़ी और साहित्य तो जम जाते हैं - दोनो में स्वाद है. पर सत्तोमल कबाड़ी से भी पुरस्कार लेने को भी तैयार हैं? कहां रुकेगा यह? कहेंगे कि मरघट पर राघोमल लकड़ी की टाल वाला भी सम्मान देना चाहता है - इस सम्मान भूख पर कहीं ब्रेक लगना चाहिये! :)
सच बोलने में डर कैसा।आप साहित्य को कबाड़ साबित करोगे तो सच ही बोलोगे। फ़्राड लोग कह ही चुके हैं उसीको बढ़ाकर कबाड़ साबित कर दें। डरें नहीं
।
काहे भयभीत हैं? मैं पूड़ी छान रहा हूँ, आप बिन्दास रहें. हा हा!!
सब ढकी छिपी बातें आप ऐसे कैसे पब्लिक कर रहे हैं । बडी बद्दुआ लगेगी ।
कब्बाड़ वाले को निराश न करें, सत्य कह दें, मन भी हल्का और जेब पुरस्कार से भारी हो जाएगी.
अपना सर हम दिवार से फोड़ लेंगे, यह जिम्मेदारी हम पर छोड़ दें.
:) :) :)
देखिये जी अगर घपलो घोटालो तथा आपके लेखो मे कोई समानता आप खोज ले तो हम भी आपको
सम्मानित कर भारत घोटाला साहित्य रत्न या कुछ ऐसा ही जो आप चाहे देना चाहेगे..सम्पर्क करे अखिल भारतीय घोटाला संघ.द्वारा समस्त राजनीतिक पार्टिया.घोटाला भवन.नई दिल्ली .भारत
देखिए! इ जो आप सब लिख रहे है ना इस से हमरे समाज के बहुत बड़े तबके का अपमान हो रहा है। हम कोरट तक खींचे लेंगे आपको हां, छोड़ेंगे नही!!
आप इ जो सब बातें लिख रहे हैं ना इस सब मन में रखने की बातें है पब्लिकली कहने की नही है न भई!! जरा सोचिएगा!!
'खैर साहब पुरस्कार तो मिल गया है मुझे, पर एक मसला और यह है कि सत्तोमलजी कबाड़ी जी ने संदेश भिजवाया है कि वह भी मुझे सम्मानित करना चाहते हैं। पर उनकी शर्त यह है कि पूड़ी सम्मान की परंपरा में मुझे पुरस्कार भाषण में लेखन और कबाड़ में समानता स्थापित करनी होगी। समानता है, मैं जानता हूं। पर साहब खुले आम दिन दहाड़े कैसे स्थापित करूं। आलोक पुराणिक एफ-posted by ALOK PURANIK at 4:47 AM on Aug 24, 2007'
आलोक जी,
आपने पूड़ी और लेखन में समानता दिन दहाड़े स्थापित कर दिया. मेरा मतलब चार बजकर सैंतालीस मिनट पर सबेरे-सबेरे....अब इसे 'स्थापना दिवस' तो नहीं 'दिवस स्थापना' कहा जा सकता है.
लेकिन कबाडे और लेखन में समानता स्थापित करने में ये 'दिन-दहाड़ा' बीच में आ रहा है....मेरा एक अनुरोध है. ये वाली समानता की स्थापना रात में कर डालिये....स्थापना रात्रि नहीं तो इसे 'रात्रि स्थापना' का नाम मिल जायेगा...क्या पता ऐसी विधा पर लोग शोध करके भविष्य में 'हिन्दी के डाक्टर' बन जाएँ..
आशानशोल से-टायर आशोशियेशान और मंड़ुआडीह मां सरसत्ती समाज ने भी आपको नॉमिनेट किया है! छकके छानिये पूड़ी?
लगता है हमें भी लेखक बनने के लिये अपने शहर का कोई फ़त्तेमल टाइप आदमी ढूंढ़ना पड़ेगा
बहुत बढिया अलोक जी,सच उजागर कर दिया।अब तो हमे भी किसि फ्त्तेमल को ढूंढना पड़ेगा।बहुत सही लिखा है-
"पूड़ी छानने वाला चाहे तो किसी पूड़ी को अपने आप उठाकर ऊपर ले आता है। जैसे कोई आलोचक चाहे तो अपने गुट के राइटर को उठाकर ऊपर ले जाये। पूड़ी वाला चाहे तो किसी पूड़ी को कच्चा कह कर बाहर रख सकता है, आलोचक भी किसी राइटर को कच्चा घोषित करके एकदम बाहर घोषित कर सकता है। तो इस तरह से हमने देखा कि पूड़ी और लेखन में बहुत कुछ समानता है।"
आलोक जी,
पूडीयोँ की तस्वीर देख कर आनँद आ गया !
लगता है , शुध्ध घी मेँ तली गईँ हैँ !
आप को ,
पहले ही हम, एक उम्दा लेखक मान चुके हैँ -
भले मानुषोँ की सँगत , अब रँग लाई है ~ ~
जय हो, फत्तेमल जी की ~~ लिखते रहिये,
स स्नेह
--लावण्या
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