Tuesday, June 12, 2007

पानी रे पानी तू अश्लील कैसा

पानी रे पानी तू अश्लील कैसा
आलोक पुराणिक
अखबार में फोटू छपी है-वाटर पार्क में कुछ बच्चे और बड़े किल्लोल कर रहे हैं। पांच सौ रुपये फी मेंबर जेब में हों, तो कैसी भी पानीविहीनता में झमाझम वाटर आ जाता है और पार्क भी।
पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, नोट न हों, तो सूखे नल जैसा और जेब भरी हों, तो वाटर पार्क जैसा।
सूखे हुए नलों के बीच वाटर पार्क का फोटू वैसा ही अश्लील लगता है, जैसे कालाहांडी में भूख से कुपोषितों की फोटो के साथ किसी तोंदू नेता का फोटू, जैसे दो रुपये का दूध रोज ना पी पाने की असमर्थता और विटामिन ए की कमी से अंधे हुए बच्चों की खबर के साथ 2000 रुपये के धूप के चश्मे का इश्तिहार।
अश्लीलता सिर्फ नंगे फोटुओं में नहीं होती, वाटर पार्क भी अश्लील लग सकते हैं।
खैर बात पानी की हो रही थी। पानी सताऊ माशूक या माशूका की तरह हो लिया है आने का पता नहीं, जाने का पता नहीं।
इंतजार का मतलब क्या होता है। विरह क्या होता है। शबे-इंतजार क्या होती है, गमे-इंतजार क्या होता है, ऐसे ठेठ शायराना मसले भी पानी के जरिये समझे जा सकते हैं।
गालिब न इंतजार में नींद आयी उम्र भर
आने का अहद कर गये, आये वो ख्वाब में
शायरी के छात्रों से कहा जा सकता है कि पानी का इंतजार करके वे गमे-इंतजार की इंटेसिटी समझें।
इस शेर का भावार्थ यह भी हो सकता है कि गालिब पूरी जिंदगी पानी की समस्या से परेशान रहे। दिल्ली के जल निगम वाले गालिब से वादा कर जाते थे कि नल में पानी आयेगा। पर पानी नहीं आता था और जल निगम के बंदे सिर्फ ख्वाब में आते थे।
बड़ा टेढ़ा मामला है साहब। पड़ोस का बंटी बता रहा है कि घर वालों ने रात में जग कर नल से पानी भरने की उसकी ड्यूटी लगा दी है। रात में पता नहीं, नल कब आकर चले जायें। बंटी बता रहा है कि जी अब तो सपने में भी सिर्फ पानी आता है, क्योंकि अगर घर में पानी नहीं आया, तो आधा किलोमीटर दूर के हैंडपंप से पानी लाने की ड्यूटी भी बंटी की लगेगी।
जिस उम्र में कुछ और सपने आने चाहिए, उस उम्र में सूखे नल के सपने आ रहे हैं।
बढ़िया है। हम रोटी, कपड़ा और मकान के सपनों से शुरु हुए थे।
अब पानी भी सपना हो गया है।
सारे सपने पानी-पानी हो रहे हैं।
पानी फिर भी दिखायी नहीं दे रहा है।
मैं सोच रहा हूं कि अगर भगवान कृष्ण अब के टाइम में होते, तो रासलीलाओँ की कहानियां न होतीं, कहानियां कुछ और होतीं। एक इस तरह की हो सकती थी-
श्रीकृष्ण खड़े हुए हैं वृंदावन के कुंजों में, प्रतीक्षारत कि गोपियां आयें, तो तदनंतर रास का कार्यक्रम शुरु हो। रात्रि के बारह बजे, एक बजे, फिर दो बजे, फिर चार बजे, फिर पांच बजे, भगवान भास्कर के उदित होने का समय। श्रीकृष्ण निराश होकर कुंज से वापस जा रहे हैं।
अगले दिवस वृंदावन के माल रोड पर दोपहर में भ्रमण करते हुए एक गोपिका दिखायी पड़ती है, एक अत्यधिक ही बड़ी सी टंकी क्रय करते हुए।
हे गोपिके, कल रात्रि रास हेतु क्यों नही आयीं-श्रीकृष्ण पूछ रहे हैं।
हे कान्हा, रात्रि भर जागकर पानी के संग्रह का प्रयास करना पड़ता है। दिवस भर तो नल आते नहीं हैं। रात्रि में किस घड़ी में नल किंचित सा जल टपका जायेंगे, यह किसी को पता नहीं होता।
जब जल की सप्लाई रेगुलरली होती थी, तब रात्रि में परिवार के समस्त सदस्य सोते थे, तब चुपके से पतली गली से निकल कर आना संभव होता था। अब तो रात्रि में पानी के संचय के लिए परिवार के समस्त सदस्य प्रतीक्षारत और चेष्टारत होते हैं। ऐसे में चुपके से घर से निकलकर आना और रास रचा पाना संभव नहीं है-अर्धनिद्रित गोपिका ने अपनी व्यथा कही।
यही बात गोपिका नंबर दो, तीन, चार और................ने कही।
इतनी गोपिकाओं के लिए पानी का इंतजाम करने में असमर्थ, रास कार्यक्रम आयोजित करने में विफल श्रीकृष्ण इतना परेशान हो गये कि वह मथुरा-वृंदावन से सुदूर द्वारिका पलायन कर गये।
श्रीकृष्ण के द्वारिका गमन के मूल में कुछ और नहीं बल्कि सूखे नल ही थे।
आलोक पुराणिक मोबाइल-09810018799

7 comments:

Arun Arora said...

कुछ पानी के बचाने के तरीके ये भी है
१.दारू कोक या सोडे के साथ पिये
२.गर्मियो मे कही बाहर जैसे पहाडो पर या गोआ जैसी जगह घूमने चले जाये जहा,या तो काफ़ी पानी हो या नहाने की जरुरत ना पडे आखिर किसन जी ने भी यही किया था

हरिराम said...

अच्छा चिन्तन मनन किया है। समाधान भी तो मानव के हाथ में है। अधिकाधिक संख्या में कुएँ, बावली, तालाबों का निर्माण और इनका रख-रखाव। वर्षा जल को संग्रह करने के लिए सामुदायिक उपाय। अब तो कृष्ण द्वारिका से भी पलायन कर गए, ज्वार, सुनामी के कारण आई समुद्री बाढ़ में शायद समा गया सब कुछ।

Gaurav Pratap said...

आईना दिखा दिया आपने. बचपन में एक दादीकहती थी "चिरयीं के जान जाये, लईकन के खेला". ये समृद्धि का भोन्डा प्रदर्शन होता ही रहेगा.

Pramendra Pratap Singh said...

बहुत खूब,

ePandit said...

हम्म पानी की कमी पर अच्छा व्यंग्य किया आपने।

Udan Tashtari said...

अर्धनिद्रित गोपिका की व्यथा पढ़ते आँखें नम हो आई.

आज जाकर यह अशांत मन कुछ राहत पा सका कि आखिर श्री कृष्ण इतनी बेहतरीन जगह छोड़ कर द्वारिका काहे पलायन कर गये थे.

आपको पढ़ते रहने से जो ज्ञानर्जन हो रहा है, उसके लिये क्या गुरु दक्षिणा दूँ-अंगूठा चलेगा क्या, द्रोणाचार्य जी??

Divine India said...

बेहतरीन व्यंग हुआ है…।
काफी कुछ कह डाला है इसमें…बधाई