आलोक पुराणिक
भाईजी नाराज थे, डांट रहे थे, क्या अगड़म-बगड़म विषयों पर लिखते हो, ट्रांसफार्मर से लेकर वाटर पार्क तक। अब कुछ सीरियस विषयों पर लिखो। उन्होने बताया, लिखो वंदे मातरम् पर।
साहब सोचा वंदे मातरम् पर।
बचपन में स्कूल में जब वंदे मातरम् गवाया जाता था, तब आंख खोलकर यह ताकते थे कि कौन नहीं गा रहा है। बाद में गुरुजी को बताते थे कि हम तो गा रहे थे, वो नहीं गा रहा था। बाद में बड़ा हुआ, तो पता लगा कि बड़े-बड़े भी यही कर रहे हैं। एक बार भाजपा वालों ने शिकायत कि हम तो गा रहे थे और लोग नहीं गा रहे थे। हम तो गा रहे थे देखो, सोनियाजी ने नहीं गाया। देखो, उनने नहीं गाया।
बचपन और बचपने में यही फर्क होता है। बचपन की उम्र होती है, बचपने की कोई उम्र नहीं होती।
बच्चों से कहता हूं कि वंदे मातरम् गाया करो रोज, तो हंसते हैं। कहते हैं गुरुजी पढ़-लिखकर अमेरिका जाना है। आप कहें, तो वंदे अमेरिकाम् कर लें।
और समझाओ, बच्चों को कि बेटे मातरम् यानी मां यानी देश को मां मानकर वंदन करना है। मदर इंडिया के बारे में सोचना है।
बच्चे और हंसते है, गुरुजी मदर इंडिया के बारे में सोचने का टाइम गया, अब तो मिस इंडिया के बारे में सोचने का वक्त है।
नेतागण वंदेमातरम् को अलग स्टाइल से समझते हैं। इसमें सुजलां, सुफलांम् का फंडा कई नेताओं को भरपूर समझ में आया है, पर दूसरे तरीके से। मेरे शहर में एक टाप क्लास पार्टी का मंझोले लेवल का नेता पानी का कारोबार करता है। उसकी कृपा से वाटर वर्क्स की सप्लाई कई मुहल्लों में नहीं आती, इन मुहल्लों में पानी वाले नेताजी के टैंकर रेगुलरली आते है। जल सप्लाई सुजलांम् में कैसे तबदील होती है, इन नेताजी को समझ में आ गया है। पब्लिक के लिए जब जल गायब हो जाता है, नेताजी का सुजलाम् हो जाता है। इसके सुफल आते ही आते हैं। पर सिर्फ नेताजी के लिए। वंदे मातरम् के फुल्ल कुसुमित को मामला तो बहुत कुंठित करता है। ईमान से कहूं, तो नयी पीढ़ी को फुल्ल कुसुमित का फंडा समझाने में शर्म आती है। जिस पीढ़ी को एक डंडीकट गुलाब खरीदने के लिए भी दस रुपये खर्चने पड़ते हों, वह प्रति फूल का मतलब दस के नोट से ही लगायेगी। जिसे कमाना आसान नहीं है।
अभी खबर पढ़ रहा हूं कि देश के 150 जिलों में नक्सलवाद प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर आ पहुंचा है, गन दे मातरम् का स्वर वहां से गूंजता प्रतीत हो रहा है।
अभी फिर एक नौजवान को समझाने की कोशिश की कि वंदे मातरम् यानी अपनी माता की वंदना करनी चाहिए, नौजवान अमेरिकन दूतावास जाने वाला था। वह बोला-माता का सम्मान कर सकते हैं, पर सेवा तो उसकी करेंगे, जहां से नोट मिलते हैं।
धन दे मातरम् -कहता हुआ नौजवान अमेरिका की सेवा करने चला गया।
वैसे क्या यही सच्चा राष्ट्रीय गीत नहीं है।
आलोक पुराणिक मोबाइल-0-9810018799
आलोक पुराणिक मोबाइल-0-9810018799
9 comments:
बहुत गहरी बात कह गये मित्र. वेदना के स्वर हैं यह. पसंद आया यह चिंतन:
बचपन की उम्र होती है, बचपने की कोई उम्र नहीं होती।
--क्या बात कही है, काश, लोग समझ पाते.
काश, धन दे मातरम वास्तव में समझ में आता बच्चों को. इस देश में धन के प्रति अवधारणा बदलने की क्रांतिकारी आवश्यकता है - तभी कहता हूं कि आप वह फाइनेंशियल एडवाइज वाले ब्लॉग पर ध्यान दें. और यह मजाक नहीं है!
धन के प्रति चिरकुट सोच से बच्चा/जवान/बूढ़ा सबको को बाहर निकालें बन्धु, यह आपका समाज को महत योगदान होगा.
ये हुआ न असली व्यंग्य, भाईसाहब बहुत आनंद आया तथा बहुत चुभा।
इस युग के शरद जोशी को हमारा प्रणाम।
व्यंग बहुत अच्छा है,पर आलोक भाइ इस पर टिपियाने का काम जेब मे पैसा हो तभी हो सकता है,उसकी भी अपनी जगह है,लेकिन आज देश प्रेम एक हसी का विषय ही है
:)
धन दे मातरम्, धन दे मातरम्" !!
आलोक जी आज की स्थिति पर बहुत अच्छा व्यंग्य किया है आपने।
धन्धे मातरम्, धन्धे मात्रम्, धन्धे रात्रम् ... पर भी कुछ विचार करें....
जे बाSSSत!!!!!
मोगेम्बो खुश हुआSSS!!!
दे दे दे मुझको मुझको……दे दे मुझको……मुझको…
धन दे धन दे, धन दे मातरम!!
रघुपति राघव राजाराम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम
हमको संपति दे भगवान
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