Saturday, June 2, 2007

वसुंधराजी, कैलेंडर ज्यादा लंबे नहीं चलते

वसुंधराजी, कैलेंडर ज्यादा लंबे नहीं चलते
आलोक पुराणिक
राजस्थान में जो कुछ चल रहा है, उसकी जिम्मेदारी अब आप पर डालना ठीक नहीं है। आपको अन्नपूर्णा घोषित किये जाने से पहले तो आप पर जिम्मेदारी डाली जा सकती थी। पर अब आप की कीर्तन-मंडली ने आपको अन्नपूर्णा घोषित कर दिया है, तो बात साफ है। मां अन्नपूर्णा के पोर्टफोलियो में सिर्फ खाने-खिलाने का जुगाड़मेंट आता है। इससे बाहर के मसले मां अन्नपूर्णा के कार्यक्षेत्र में नहीं आते। आपको तो पता ही होगा, आपकी कीर्तन मंडली ने आपकी अन्नपूर्णा छवि के तरह-तरह के कैलेंडर बंटवाये हैं।
भई मुझे कोई आपत्ति नहीं हैं, अगर राजस्थान की मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा देवी के रोल में आ जायें। इस देश में इतनी भुखमरी है कि अकेली ओरिजनल अन्नपूर्णाजी से मामला संभल नहीं पा रहा है। वह यूपी में ध्यान देती हैं, तो उड़ीसा से खबरें आ जाती हैं भुखमरी की। अब राजस्थान में एक अलग अन्नपूर्णा हों, हर स्टेट में एक अलग हों, तो भी हर्ज नहीं है।
पर मसला सिर्फ इतना नहीं है। मुझे लगता है कि वसुंधराजी को अन्नपूर्णा बनाने वाले बहुत कलाकार टाइप लोग हैं। देवी डिक्लेयर करना ही था, तो किस देवी को चुना-अन्नपूर्णा। खाने का जुगाड़ सैट हो जाये। अरे ज्ञान की देवी सरस्वती भी हैं, पर नहीं सरस्वती को कौन पूछे, खाने दिया जाये पहले। और खाने के बाद ज्ञान की नहीं, पीने की सोची जायेगी। कुछ समझदार लोगों को पीने का ख्याल आ जाये, तो किसी को भाजपा नेता को भैंरो का अवतार भी घोषित किया जा सकता है। खुशकिस्मती है भैंरोसिह शेखावतजी की, जो जयपुर में नहीं हैं। दिल्ली में आराम से हैं। वरना इस हल्ले में वह पता नहीं क्या हो जाते।
वैसे चुने जाने को मां दुर्गा भी हैं, पर नहीं, मां दुर्गा की रेपुटेशन कुछ अलग सी है, वह सारे पापियों कासंहार करती हैं। पापियों का संहार सच्ची में होने लगे, तो नेताओं को दुर्लभ और संरक्षित श्रेणी का प्राणी घोषित करना पडेगा। मां दुर्गा का मामला डेंजरस है। सो मां अन्नपूर्णा सेफ हैं,सबके खाने का इंतजाम, वह पापी-पुण्यवान को नहीं देखतीं।
वसुंधराजी का जो अन्नपूर्णाई आउटफिट चंपुओं ने तैयार किया है, वह दिव्य है। उनके तरह-तरह के फोटू बाजार में विचर रहे हैं। किसी में वसुंधराजी के सारे हाथों में कुछ न कुछ थमा दिया गया है। किसी से गेहूं झर रहे हैं, किसी में फूल है। किसी में तलवार है। कोई हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा हुआ है।
अब जरा कल्पना कीजिये कोई चंपू विधायक वसुंधराजी के पास जाये।
सीएम डांटे-तुम्हारे खिलाफ बहुत शिकायतें मिल रही हैं। तुमने फलां इलाके के गेहूं वितरण कार्यक्रम में घपला कर दिया। लाओ तुम्हाऱे खिलाफ एक आर्डर पास कर दूं।
चंपू कहेगा-कहां देवीजी, ऐसा कुछ नहीं है। वैसे भी आपके चारों हाथ पहले ही बिजी हैं। आर्डर कैसे पास करेंगी।
सीएम गेहूं गिराते हाथ को एक तरफ रखेंगी और दूसरे हाथ से कुछ लिखने की कोशिश करेंगी।
पता लगेगा कि विधायकजी गेहूं वाले हाथ को उठाकर भाग गये हैं।
चंपू नंबर दो कहेगा सीएम आप तो परमानेंट देवी वाली मुद्रा में रहिये। कुछ करने के लिए तो हम हैं ही।
मुझे हमेशा लगता है कि देवी-देवताओं के चंपू एक साजिश के तहत अपने देवी-देवताओं के सारे हाथ बिजी करवा देते हैं। ताकि चंपुओँ का काम इजी हो जाये।
अब चंपू गेहूं घोटाला करते रहें।
देवी के हाथ से सिर्फ आशीर्वाद बरसेगा।
एक सीन और देखिये-किसी अफसर को सीएम डांट रही हैं-तुम्हारे इलाके से बहुत शिकायत आ रही हैं।
अफसर कह रहा है-जी आप तो वैसे ही मुस्कुरायें, जैसे कैलेंडर में मुस्कुरा रही हैं। वैसी ही इमेज आप पर अच्छी लगती है।
नेता कैलेंडर हो जाये, तो खाने-पीने वालों के लिए सेफ हो जाता है।
महात्मा गांधी कित्ते सेफ हैं, हर सरकारी दफ्तर में कैलेंडर की टंगे हुए हैं और फुल खान-पान चल रहा है।
वसुंधराजी भी कैलेंडर हो रही हैं।
पब्लिक नेता को चुनती है, नेता कैलेंडर हो जाता है। जिन्हे पब्लिक के लिए काम करना चाहिए, वे कुछ की दीवार पर लटक जाते हैं।
पर कैलेंडरबाजी वाले नहीं जानते कि कैलेंडर की लाइफ बहुत नहीं होती।
पर मसला सिर्फ लाइफ का नहीं है।
आगे हमें बताया गया है कि भाजपा में सिर्फ अन्नपूर्णा ही नहीं हैं, वहां पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी हैं। कुछ करने से पहले चंपू सोचते नहीं हैं। अब राजनाथ सिंहजी को जो महेश यानी शिव बता रहे हैं, वह नहीं जानते कि शिव तांडव, संहार करके पुनरचना के देव हैं। पहले तोड़-फोड़ करके संहार करके निपटाते हैं। राजनाथ सिंहजी लगता है कि अभी इस स्टेज पर हैं। अभी बीजेपी को निपटायेंगे। फिर आगे की सोचेंगे।
पर मामला पेंचात्मक है। संहार की स्टेज के बाद उन्हे महेश पोस्ट से हटाया भी जा सकता है।
भाजपा की दिक्कत यह हो गयी है कि अब ये देवी-देवताओं की पार्टी है या फिर खाऊ-पीऊ पंडों की।
पर नोट करने की बात यह है कि कैलेंडरों का इतिहास यह बताता है कि कैलेंडर चाहे जितना जोरदार क्यों न हो, उसे थोड़े टाइम बाद उतरना होता है।
लगाने वाले फिर लपक कर नये कैलेंडर लगा लेते हैं। ये वही लोग होते हैं, जिन्होने पुराने कैलेंडर को बहुत सम्मान से टांगा होता है। वसुंधराजी प्लीज इस बात को नोट कर लें।
आलोक पुराणिक मोबाइल-9810018799


7 comments:

संजय बेंगाणी said...

जिन्हे पब्लिक के लिए काम करना चाहिए, वे कुछ की दीवार पर लटक जाते हैं।

सटीक.

मैथिली गुप्त said...

बहुत करारा व्यंग्य लिखा है आपने.

Arun Arora said...

बात समझ मे आई मंदिर बनवाना चाहिये था उसकी उमर लंबी होती है.उसके नीचे एक कालपत्र(इंदिरा जी जैसा,ताकी खुदाई हो तो भविष्य मे इतिहास भी मिल जाये)और सरकारी खर्चे पर भंडारा,

रंजन (Ranjan) said...

सटीक!!

सुनीता शानू said...

कौवा चला हँस की चाल...बहुत अच्छा व्यंग्य किया है आलोक जी...

सुनीता(शानू)

Udan Tashtari said...

वाह, कलेंडर में टंग गये पूजनीय हो कर..बस अब सब ऐश करें. क्या विडंबना है!

-बहुत मारक व्यंग्य है.

Jagdish Bhatia said...

बहुत अच्छा लिखा आलोक जी,
कैलेंडर चाहे राजनीतिज्ञों के हों, देवताओंके या फिल्मी हिरोइनों के सब का एक ही हश्र होता है।